पृष्ठ:शशांक.djvu/३२०

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(३०१) अच्छी गति दो। भाई! सब लोग एक बार भगवान् की जय बोलो"। हरिध्वनि से सभामंडप गूंज उठा। लल का अंतकाल समझ सम्राट ने पुकारकर कहा लल्ल, दादा)! एक बार राम राम करो, कहो-राम- राम-" । वृद्ध क्षीण कंठ से बोला "राम-राम' । बोली बंद हो गई, दो एक बार आँखों की पुतलियाँ ऊपर नीचे हिलीं। देखते देखते लल्ल ने परलोक की यात्रा की। प्रभुभक्त सेवक अब तक स्वामी के वियोग में इसी आशा पर दिन काट रहा था, आज चल बसा । सम्राट हाय मार कर रोते रोते उसके प्राणहीन शरीर पर गिर पड़े। चौथा परिच्छेद नरसिंहगुप्त का प्रश्न संध्या के पीछे सम्राट चित्रसारी में विश्राम कर रहे हैं । रूप लावण्य से भरी. तरुणी न कियाँ नाच गाकर उन्हें प्रसन्न करने की चेष्टा कर रही हैं। किंतु नए सम्राट उदास हैं, उनके मुँह पर चिंता का भाव झलक रहा है। देखने से जान पड़ता है कि संगीत की ध्वनि उनके कानों में नहीं पड़ रही है, नचकियों के हावभाव की ओर उनकी दृष्टि नहीं है। शशांक का जी आज न जाने किधर उड़ा हुआ है। उनका मन नाच रंग, राजकाज सब कुछ भूल कभी चाँदनी में चमकते हुए नए प्रासाद के अंतःपुर में इधर उधर भटकता है, कभी गंगा फी धवल या के 'भीतर किसीको ढूँढ़ता फिरता है