पृष्ठ:शशांक.djvu/३२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(३०३)


कुछ उनके मुँह से न निकल सका, वे भूमि पर गिर पड़े। शशांक का मुँह पीला पड़ गया। वे बोल उठे “हाँ! नरसिंह, मैंने ही। मैं ही चित्रा की मृत्यु का कारण हूँ। मैंने उसे अपने हाथ से तो नहीं मारा, पर मरी वह मेरे ही कारण" ।

नरसिंह उठ खड़े हुए और कड़े स्वर से बोले “युवराज-शशांक ! तुम्हारे सामने ही चित्रा मरी और तुम चुपचाप खड़े रहे, उसे बचाने का यत्न न किया ?"

“यत्न किया था, नरसिंह ! पूर्णिमा का चंद्रमा, गंगा की धारा, और आकाश के मेव साक्षी है । वह कब जल में कूदी मैं देख न सका। उलटकर देखा तो छत पर चित्रा न दिखाई पड़ी। मैं भी चट गंगा में कूद पड़ा। चंद्रमा मेघों से ढंक गया, पानी बरसने लगा, आँधी उठी, गंगा का जलं बाँसों ऊपर उछलने लगा। इस धारा में मैं चित्रा को इधर उधर ढूँढ़ने लगा। नरसिंह ! जब तक शरीर में बल रहा, जब तक चेत रहा तब तक ढूँढ़ता ही रहा, पर कहीं पता न लगा । नरसिंह ! ज्ञान रहते मैं चित्रा को छोड़कर गंगा की धारा से बाहर नहीं निकला। मेरे अचेत हो जाने पर गंगा की तरंगों ने मुझे किनारे फेंक दिया।"

नाच-गाना बंद हो गया । वसुमित्र का संकेत पाकर न नर्तकियों और गवैयों का दल चित्रसारी से निकलकर नौ दो ग्यारह हुआ। वहाँ सन्नाटा छा गया। नरसिंह फिर धीरे धीरे बोलने लगे “शशांक ! तुम उतनी रात बीते चुपचाप चोरों की तरह अंतःपुर के कोने में चित्रा से मिलने क्यों गए ? दिन को क्या तुम चित्रा से नहीं मिल सकते थे."

"सुनो, नरसिंह ! सोचा था कि एक बार एकांत में जा उसे देख आऊँगा, फिर चला आऊँगा, फिर कभी न देखू गा। तब तक पाटलि पुत्रवाले यही जानते थे कि शशांक मर गया हैं । मैंने सोचा था कि उसे