( ३०७) इतना कहकर नरसिंहदत्त वायु वेग से कोठरी के बाहर निकल गए । शशांक मूर्ति के समान भूमि पर बैठे रह गए। पाँचवाँ परिच्छेद भाग्य का पलटा पुराने मंदिर के भुइँहरे में कुशासन पर बैठे महास्थविर बुद्धघोष. और संघस्थविर बंधुगुप्त बातचीत कर रहे हैं । भाग्यचक्र के अद्भुत फेर से वे आज कल हारे हुए हैं। जिस समय वे यह समझ रहे थे कि अब बौद्धसंघ निष्कंटक हो गया, बौद्धराज्य की नींव अब दृढ़ हो गई उसी समय उन्होंने देखा कि बौद्धसंघ पर भारी विपत्ति आया चाहती है, बौद्ध राज्य की आशा मिट्टी में मिला चाहती है। जिस दिन शशांक ने 'सभामंडप में प्रकट होकर माधवगुप्त को सिंहासन से उतारा उसी दिन. हंसवेग माधवगुप्त को लेकर पाटलिपुत्र से चलता हुआ । बुद्धघोष भी उस समय राजसभा में उपस्थित थे । वे भी सभा छोड़कर भागे, पर नगर में बने रहे। वे जानते थे कि पाटलिपुत्र के अधिकांश निवासी बौद्ध हैं इससे शशांक मुझपर सहसा कोई अत्याचार करने का साहस न कर सकेंगे । बंधुगुप्त उस दिन राजसभा में नहीं गए थे। माधवगुप्त के राजत्वकाल में हंसवेग फी मंत्रणा के अनुसार यशो- धवलदेव के हाथ से सब अधिकार ले लिए गए थे। उस समय बंधुगुप्त भी कभी कभी राजसभा में आकर बैठते थे, पर डर के मारे यशोधवल
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