पृष्ठ:शशांक.djvu/३५४

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( ३३५ ) का निबटेरा यहाँ होता आया है। ईसा की बारहवीं शताब्दी में जब आर्यावर्च के राजाओं का सौभाग्यसूर्य सब दिन के लिए अस्त हो रहा था तब इसी शूकरक्षेत्र में महाराज जयचंद ने मुहम्मद गोरी की सेना का साधना किया था। शूकर क्षेत्र ही में शशांक को पता लगा कि राज्यवर्द्धन मालवे की ओर बढ़ रहे हैं; देवगुप्त लड़ाई में मारे गए और राज्यवर्द्धन की चढ़ाई अब कान्यकुब्ज ही पर है। शशांक देवगुप्त की मृत्यु का संवाद पाकर बहुत दुखी हुए पर शूकर क्षेत्र उन्होंने नहीं छोड़ा। इसी बीच मगध से संवाद आया कि यशोधवलदेव चारपाई पर पड़े हैं और उनकी दशा अच्छी नहीं है, गौड़ और वंग की सेना लेकर विद्याधरनंदी आ रहे हैं। दूत पर दूत आकर राज्यवर्द्धन के बढ़ते चले आने का समाचार कहने लगे । जब वे मथुरा पहुँचे तब सम्राट शशांक ने उनके पास दूत भेजा । दूल अपमानित होकर लौट आया और कहने लगा "थानेश्वर के महाराज ने कहा है कि अब पाटलिपुत्र में ही चलकर शशांक से भेंट करेंगे।" अनंतवर्मा और माधववर्मा ने जमुना के तट पर ही राज्य- वर्द्धन को रोकने का प्रस्ताव किया, पर शशांक सहमत न हुए। अंत में राज्यवर्द्धनं अपनी सेना सहित शूकरक्षेत्र में आ पहुँचे। तब भी शशांक ने उनपर आक्रमण न किया। उन्होंने महाधर्माध्यक्ष नारायण शर्मा .को दूत बनाकर थानेश्वर के शिविर में भेजा । नारायण शर्मा स्वर्गीया महादेवी महासेनगुप्ता के श्राद्ध के अबसर पर एक बार थानेश्वर हो आए थे और राज्यवर्द्धन से परिचित थे। वे दोनों भाई महाधमा- ध्यक्ष पर बड़ी श्रद्धा रखते थे । सम्राट ने नारायणशर्मा से कहला भेज. साम्राज्य की आज्ञा के ही कान्यकुब्ज पर आक्रमण किया था । महा- नायक नरसिंहदत्त ने भी सम्राट की इच्छा के विरुद्ध ही प्रतिष्ठानदुर्ग पर आक्रमण और अधिकार किया है। थानेश्वर के सेनानायकों ने 111 सगुप 1914