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पृष्ठ:शशांक.djvu/३८०

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"महाराज ! पानी। अनंतवम्मा ने जल ला कर महाप्रतीहार के मुँह में डाला । वृद्ध कुछ स्वस्थ होकर बोला “महाराज़!-बौद्ध' चक्रांत-भीषण षडयंत्र- दो महीने से-ये सब- -आपकी -हत्या करने की चेष्टा में थे- -मेरे मारे-कुछ कर नहीं-पाते थे-यह बुद्धश्री -जल"। अनंतवर्मा ने मुँह में फिर थोड़ा जल दिया। विनयसेन की छाती के घाव से रक्त की धारा छूट चली-धरतो गीली हो गई। धीरे धीरे वृद्ध की चेष्टा मंद होने लगी- देह पीली पड़ चली। बड़े कष्ट से ये शब्द निकले “महाराज, शशांक-अब भी-बड़ी आशंका है- तुरंत-पाटलिपुत्र-परित्याग-सब-बौद्ध-शशा" । वाक्य पूरा होने के पहले ही वृद्ध के मुँह से रक्त फेंका। प्राण निकल गया, सिर सम्राट के पैरों पर पड़ा रहा । शशांक की आँखों से आँसू की धारा बह रही थी।' उनका गला भर आया था, उनके मुँहसे इतना भर निकला "अनंत !-आज ही”। "क्या महाराज ?" "अाज ही-पाटलिपुत्र परित्याग-" क्यों प्रभो ?" "अनंत ! चित्रा, पिता, लल्ल, वृद्ध महानायक, अंत में ये विनय- सेन भी.-। आज ही मैं पाटलिपुत्र छोड़ता हूँ। रामगुप्त से कह आओ कि एक पक्ष के भीतर नगरवासी पाटलिपुत्र छोड़ दें। गीदड़, कुत्तों और चील कौवों को छोड़ पाटलिपुत्र में और कोई न रह जाय । मैं इसी क्षण पाटलिपुत्र छोड़ता हूँ। जो अपने को मेरी प्रजा समझता हो वह भी चटपट छोड़ दे। मैं शाप देता हूँ कि जो कोई यहाँ रहेगा "उसका निर्वश होगा, उसके कुल में कोई न रह जायगा, उसका मांस चील कौये खायँगे । बुद्धश्री को आग में जलाओ” ।