( ३८० उस समय उसे देखने से ऐसा जान पड़ता था कि पाटलिपुत्र का कोई वारांगना-विलासी नागर है, शरीररक्षो सैनिक नहीं हैं। शशांक मंडला से कर्णसुवर्ण की ओर गंगातट के मार्ग से नहीं चले, उन्होंने जंगल पहाड़ का रास्ता पकड़ा। वसुमित्र और सैन्यभीति गंगातट के मार्ग से ही कर्ण सुवर्ण की ओर चले । यह स्थिर हुआ कि शशांक तो अनंतवम्मा और माधववर्मा को लेकर दक्षिण की ओर से कर्णसुवर्ण पर आक्रमण करें और सैन्यभीति और वसुमित्र उत्तर की ओर से धावा करें। मंडला से चल कर एक महीने में सम्राट जंगल पहाड़ लाँघते ताम्रलिप्ति में आ निकले। सारी अश्वारोही सेना आगे चलती थी। बीच में शरीररक्षी सेना सहित स्वयं सम्राट थे और पीछे पदातिक सेना थी। जाड़ा बीतने पर वसंत के प्रारंभ में एक दिन संध्या के समय ताम्रलिपि नगर के पास सम्रट का शिविर स्थापित हुआ। अश्वारोही सेना ने दस कोस और आगे बढ़कर पड़ाव डाला और पदातिक सेना पाँच छः कोस पीछे रही। दो पहर रात तक अनंतवर्मा और रमापति के साथ बातचीत करके सम्राट अपने शिविर में सोए । सवेरे ही फिर उत्तर की ओर यात्रा करनी होगी, इससे शरीररक्षी सेना भी डेरों में जाकर सो रही। इधर उधर दस पाँच पहरेवाले ही जागते रहे। तीन पहर रात गए पहरेवाले बहुत से घोड़ों की टापों का शब्द सुनकर चौंक पड़े। उनके शंखध्वनि करने के पहले ही शिविर पर चारों ओर से आक्रमण हुआ । सम्राट के साथ एक सहस्त्र अश्वारोही सेना बराबर रहा करती थी। उस सेना में सब के सब सुशिक्षित, पराक्रमी और युद्ध में अभ्यस्त रहा करते थे । जब तक कोई युद्ध में अद्भुत पराक्रम नहीं दिखाता था तब तक शरीररक्षी सेना में भरता नहीं हो सकता था। इस प्रकार अकस्मात् आक्रमण होने पर भी शरीररक्षा सेना डरी या घबराई
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