पृष्ठ:शशांक.djvu/४०४

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6 ३८७ ) "नहीं महाराज! माधवगुप्त का अपराध क्षमा कोजिय" । "माधवगुप्त ! आपकी बात समझ में नहीं आती है। "महाराज ! समझ में तो मुझे भी नहीं आती है, अदृष्ट न जाने क्या क्या कहलाता है। रमापति के वेश में मालती जल लिए आ पहुँची । जल मुँह में पड़ते ही सम्राट् और भी स्वस्थ हुए। इतने में बहुत से अश्वारोहियों का शब्द कुछ दूर पर सुनाई पड़ा। देखते देखते सम्राट के साथ की सारी अश्वारोही सेना उस बाल के मैदान में आ पहुँचा । अनतवमा ने आकर सम्राट को अभिवादन किया। दो सैनिकों ने निःशस्त्र माधवगुप्त को लाकर शशांक के सामने खड़ा कर दिया। माधवगुप्त सिर नीचा किए चुपचाप खड़े रहे। शशांक ने बहुत दिनों से माधवगुप्त को नहीं देखा था । देखते ही स्नेह से उनका जी भर आया । वे बोल उठे "माधव !" माधवगुप्त दौड़कर सम्राट के चरणों पर गिर पड़े, उनकी आँखों से आँसुओं की धारा छूट चली। शशांक ने कहा "माधव ! तुम माधव के अधीश्वर और महाराज महासेन गुप्त के पुत्र होकर इतने कातर क्यों होते हो?" "भैया। माधव -भिखारी-चरणों में स्थान-नहीं-महाराजा. धिराज ! इस कृतघ्न का शीघ्र दंडविधान-- 'स्या हुआ, माधव ! तुम निर्भय होकर कहो"। माधवगुप्त के मुँह से एक शब्द न निकला। वज्राचार्य बोले "महाराज ! माधवगुप्त का भ्रम दूर हो गया है । हर्षवर्द्धन मगंध के सिंहासन पर समुद्रगुप्त के किसी वंशधर को नहीं रखना चाहते। वे अपना कोई सामंत वहाँ भेजना चाहते हैं। माधव- गुप्त को अपने साथ थानेश्वर और कान्यकुब्ज में रखना चाहते हैं"