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शिवशम्भु के चिट्ठे


थीं। उन सब बातों का अनुभव दूसरों को नहीं हो सकता। दूसरों को क्या होगा, आज यह वही शिवशम्भु है, स्वयं इसीको उस बालकालके अनिर्वचनीय चाव और आनन्दका अनुभव नहीं हो सकता।

बुलबुल पकड़नेकी नाना प्रकारकी कल्पनाएं मन ही मनमें करता हुआ बालक शिवशम्भु सो गया। उसने देखा कि संसार बुलबुलमय है। सारे गांवमें बुलबुलें उड़ रही हैं। अपने घरके सामने खेलनेका जो मैदान है, उसमें सैकड़ों बुलबुलें उड़ती फिरती हैं। फिर वह सब ऊंची नहीं उड़ती; बहुत नीची-नीची उड़ती है। उनके बैठने के अड्डे भी नीचे-नीचे हैं। वह कभी उड़कर इधर जाती हैं और कभी उधर, कभी यहां बैठती हैं और कभी वहां, कभी स्वयं उड़ कर बालक शिवशम्भुके हाथकी उंगलियों पर आ बैठती हैं। शिवशम्भु आनन्द में मस्त होकर इधर-उधर दौड़ रहा है। उसके दो-तीन साथी भी उसी प्रकार बुलबुलें पकड़ते और छोड़ते इधर-उधर कूदते फिरते हैं।

आज शिवशम्भुकी मनोवाञ्छा पूर्ण हुई। आज उसे बुलबुलोंकी कमी नहीं है। आज उसके खेलनेका मैदान बुलबुलिस्तान बन रहा है। आज शिवशम्भु बुलबुलोंका राजा ही नहीं, महाराजा है। आनन्दका सिलसिला यहीं नहीं टूट गया। शिवशम्भुने देखा कि सामने एक सुन्दर बाग है। वहीं से सब बुलबुलें उड़कर आती हैं। बालक कूदता हुआ दौड़कर उसमें पहुंचा। देखा, सोनेके पेड़-पत्ते और सोने ही के नाना रंग के फूल हैं। उन पर सोने की बुलबुलें बैठी गाती हैं और उड़ती फिरती हैं। वहीं एक सोनेका महल है। उसपर सैकड़ों सुनहरी कलश हैं। उन पर भी बुलबुलें बैठी हैं। बालक दो-तीन साथियों सहित महल पर चढ़ गया। उस समय वह सोनेका बगीचा सोनेको महल और बुलबुलों-सहित एक बार उड़ा। सब कुछ आनन्दसे उड़ता था। बालक शिवशम्भु भी दूसरे बालकों-सहित उड़ रहा था। पर यह आमोद बहुत देर तक सुखदायी न हुआ। बुलबुलोंका खयाल अब बालक के मस्तिष्क से हटने लगा। उसने सोचा—हैं! मैं कहां उड़ा जाता हूं? माता-पिता कहाँ? मेरा घर कहाँ? इस विचारके आते ही सुख-स्वप्न भङ्ग हुआ। बालक कुलबुलाकर उठ बैठा। देखा और कुछ नहीं, अपना ही घर और अपनी ही चारपाई है। मनोराज्य समाप्त हो गया।