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शिवशम्भु के चिट्ठे


इतिहासमें अच्छे वैसरायोंमें अपना नाम छोड़ जा सकते हैं। नहीं यह समय भी बीत जावेगा और फिर आपका करने धरनेका अधिकार ही कुछ न रहेगा।

विक्रम, अशोक, अकबरके यह भूमि साथ नहीं गई। औरंगजेब अलाउद्दीन इसे मुट्ठी में दबा कर नहीं रख सके। महमूद, तैमूर और नादिर इसे लूटके मालके साथ ऊंटों सौर हाथियोंपर लादकर न ले जा सके। आगे भी यह किसीके साथ न जावेगी, चाहे कोई कितनी ही मजबूती क्यों न करे। इस समय भगवानने इसे एक और ही जातिके हाथमें अर्पण किया है, जिसकी बुद्धि, विद्या और प्रतापका संसारभरमें डंका बज रहा है। माइ लार्ड! उसी जातिकी ओर से आप इस देशकी ३० करोड़ प्रजाके शासक हैं।

अब यह विचारना आपहीके जिम्मे है कि इस देशकी प्रजाके साथ आपका क्या कर्त्तव्य है। हजार सालसे यह प्रजा गिरी दशामें है। क्या आप चाहते हैं कि यह और भी सौ-पचास साल गिरती चली जावे? इसके गिराने में बड़ेसे बड़ा इतना ही लाभ है कि कुछ संकीर्ण हृदय शासकोंकी यथेच्छाचरिता कुछ दिन और चल सकती हैं; किन्तु इसके उठाने और सम्हालने में जो लाभ है, उसकी तुलना नहीं हो सकती है। इतिहासमें सदा नाम रहेगा कि अंगरेजोंने एक गिरी जातिके तीस करोड़ आदमियोंको उठाया था। माई लार्ड! दोनोंमें जो बात पसन्द हो, वह कर सकते हैं। कहिये क्या पसन्द है? पीछे हटाना या आगे बढ़ाना?

('भारतमित्र', २१ जनवरी सन् १९०५)


[५]
आशाका अन्त!

माइ लार्ड! अबके आपके भाषणने नशा किरकिरा कर दिया। संसारके सब दुःखों और समस्त चिन्ताओंको जो शिवशम्भु शर्मा दो चुल्लू बूटी