पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१३१

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शिवसिंहसरोज

११२ शिवसिंहसरोज २३१ जगदेव कवि वैस तरुनाई रूप रा अरुनाई तैसी सुन्दरता पई सोभा सची सम सचनी । रति तो रती सी रंभा लंक को न संक जाके कहै। जगदेव रहै स्त्रो देखि भेचकी ॥ सावन सुहाए मनभावन के सेंग पटपटुली ने पग डे के लेन लागी मचकी । भूल को - काय दई झोंक एकवारन सो बारन के भार कैयों बारे लचकी ॥ १ ॥ २२ जगन्नाथ कवि ( १ ) भव-भय-खेदन की बेदन मिटाइवे को हरि चारों वेदन को सार कालि लीता है । महामोहपीता भये त्रिगुनअतीता जाके सुनत ही होत ऋषभान को उजीता है। ॥ कहे जगन्नाथ पाइ नि जरूपमीत होत भूतभ्रम रीतां लागे ज्ञान को पलीता है । बहै जग जीता करै कुलन पुनीता मोख प्रीति उपजीता ते गीतां जिन गीता है ॥ १ ॥ २३३जगन्नाथ (२ ) अवस्थी जुमेरपुरवाजे तात्यो है निषाद पहलाद को उबारयो युद्ध सादर आहत्या की पादरज लाय । कहै जगन्नाथ हाथ धरि गिरि ब्रजंनाथ पाल्यो न पथ : पुरंदरें लजाय के ॥ बार न करी है नेक बार’ के तारन में कारन कहा है जगतारन कहा है। जोक्त इतै ही नहीं वत किर्ता ही प्रभु ऐसही विी की चितैहो चित्त लाय के ॥ १.॥ २३४. जगनन्द कवि जौ लौं तेरी आई तौ लीं हरि की शरन आघ करि ले ऑपांव कृष्णनाम में अटकि जा " बन्यो तेरो दाँध चिंतचाव अति भवं ही साँ गोवर्धननाधेरू-माधुरी गटकि जां॥ ममता वहार्य का क्रोध को १ भौचक्की । २ पढ़ी। ३ हाथी । ४ देखते । ५ आयु । ६ दूर कर।