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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१३८

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श्यामास्वप्न

अभागिनी तो कही दिया है . श्यामसुंदर मूर्छित होकर गिर पड़े-मैंने सोचा यह क्या अनर्थ हुआ. घाट की बाट :-कोई न कोई आही जावै तो मेरी कितनी भारी दुर्दशा हो, और इधर इन्हें छोड़ चली जाऊँ तो भी तो नहीं बनता. मैंने मन में कुछ ठान उनका हाथ पकड़ बोली-"उठो तो सही. मैं क्या भगी जाती हूँ जो तुम इतने अधीर हो गए. वाह-तुम तो पुरुष और मैं स्त्री हूँ-पर तुम में मुझसा भी धीरज नहीं है-उठो' यह क्या करते हो--" ऐसा कह के उठाया. श्यामसुंदर उठे और मेरे कंधे के आसरे से खड़े हो गए . मैंने कहा "यह क्या करते हो--मुझे घाट पर मत छुवो कोई दुष्ट देख लेगा तो वही विष्णुशर्मा--याद है न- उसी दिन सा हाल होगा."

श्यामसुंदर ने उत्तर दिया--"मैं तो जानता हूँ-पर सुनो अब मुझै अधिक न सतावो. धीर नहीं धरा जाता." इतना कह मुझै छाती से लगाया-मेरे कटि को बांह में ले भली भांति चुंबन कर अति गाढ़ आलिंगन किया . (की) मैं तो जल का कलस माथे पर धरने लगी थी न तो इसे उतार सकी और न धर सकी. श्यामसुंदर ढीठ तो थे ही-मुझै एक परग भी आगे बढ़ने न दिया-मैं उनसे हार गई थी. कितना समझाया पर उनके मुख से यही निकला .

अधर कुसुम कोमल ललित तृषित मधुप रस लीन ।
पिय न वाहि दै मधुर मधु गुनि ता कहँ अति दीन-॥

मैं हैरान हो गई इनसे, इनके मारे घाट भी छूटा सा जान पड़ेगा, मैंने चिरोरी किया की)."यह क्या करते हो." इतना ज्यौंही कहा कोई दूर से ठुमरी की धुनि में यह कवित्त गा उठा. हम लोग ठठक गए और एक दूसरे की ओर निहारने लगे-मुख से बात भी न निकली. ओठों पर हम दोनों के लखौटा लग गया और गीत सुनने लगे.

"छूटो गृह काज लोक लाज मनमोहिनी को
भूलो मनमोहन को मुरली बजायबो