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श्यामास्वप्न

उसी राह से गए . वर्षा का आरंभ हो आया था-श्यामसुंदर ने मुझे मिलने को लिख भेजा . मैंने भी यह उत्तर दिया--

तीर है न वीर कोऊ करैना समीर धीर
वाढ्यौ श्रमनीर मेरो रह्यो ना उपाव रे
पंखा है न पास एक श्रावन की आस तेरे
सावन की रैन मोहि मरत जियाव रे
संगम में खोलि राखी खिरकी तिहारे हेतु
भई हौं अचेत मेरी तपन बुझाव रे
जान जात जाने कौन कीजिए उताल गौन
पौन मीत मेरे भौन मंद मंद प्राव रे ."-

इसको पढ़ श्यामसुंदर आनंदरूप हो गए बार बार इस कवित्त को पढ़ छाती से लगाया और “धन्य भाग" कह किसी प्रकार से साँझ को नियत समय पर श्यामसुंदर पहुँच ही तो गए . इस बार के सुख का पारा- वार नहीं लिखती (कहती), मुझे तो मानौ साक्षात् बैकुंठ भी कुंठ जान पड़ता था . श्यामसुंदर की बड़ाई मैं कुछ नहीं कर सकी--मेरी रसना उनकी प्रशंसा और सुख कहते कहते थक गई थी. पर हाय मैं ऐसी बेकाज ठहरी कि उनको मुँह बताने की भी न रही . उनकी भलाई और मेरी बुराई- उनकी सौजन्यता (सुजनता) और मेरी दुष्टता-उनकी दया और मेरी निर्द- यता-उनकी कृपा और मेरी निठुरता-उनकी सचाई और मेरी झुठाई- उनकी दीनता और मेरी क्रूरता--उनकी हाय और मेरी हँसी- उनकी बड़ाई और मेरी नीचता- उनके दिल की स्वच्छता और मेरी कपटता ( कपट )-उनका तलफना और मेरा हँसना-इन दोनों पाटियों का सेतु हम दोनों की जीवन नदी में बाँधा जायगा और आचंद्रार्क दोनों की कहानी लोक में प्रसिद्ध रहेंगी . बस अब अधिक कहने से क्या होगा- संसार इसको जान बैठा . तो मैं अपनी कथा