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श्यामास्वप्न

श्यामसुंदर उठ खड़ा हुआ. आगे देखा तो वही नदी बहती दिखी जिसने मनमोहिनी प्रानधन श्यामा को तरंग हाथों के बीच छिपा लिया था और इस्से वियोग कराया था . उस नदी के बीच में वही शिखर मात्र दिखाता था जिसपर श्यामा का सिंहासन धरा था . श्यामसुंदर मुझसे बिना पूछे और उत्तर दिए कूद पड़ा; सैकड़ों गोते खाए मेरा करेजा उछलने लगा

मैं उसे थाम्हकर रह गया , एक तो श्यामा गई दूसरे श्यामसुंदर भी उसी के पीछे चला -मैंने सोचा कि जीना मेरा भी व्यर्थ है-यही जान विमान को छोड़ कूदा-आंखें बंद हो गई कानों में पानी समा अब तो नदी में मग्न हो गए-क्या जाने कहाँ गए-कुछ सुधि न रही-विवश थे-सुधि बुधि भूल गई-पाताल गए कि आकाश- बस, आँख मूंद के रह गए

श्यामसुंदर की दूर से धुनि सुन पड़ी और वह यही कहता गया-
प्यारी जीवन मूरि हमारी । दीन मोहि तजि कहाँ सिधारी ।।
तुअ बिनु लगत जगत मुहि फीको । गेह देह सर्वस नहिं नीको ॥
तो वह गुलाब सो अानन । तेरे बिना गेह भो कानन ॥
हाय हाय लोचन की तारा । हा मम जीवन जीवनधारा ।।
हाय हाय रति रंग नसेनी । हा मृगनैनी नागिनीवेनी ।
हा मम जीवन प्रान अधारा । हा मम हृदय कमल मधुवारा ॥
हा मम मानस मान सरोवर । पंकज विहँग शरीर तरोवर ॥
हा मम दृग चकोर शशि चांदनि । हा विधुवदनि सुकोइल नांदनि ।।

दोहा

हा मम लोचन चंद्रिका, हा मम नैन चकोर ।
हा मम जीवन प्रानधन, कहा. गई मुख मोर ॥