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श्यामास्वप्न

तिरछे अक्षरइतना सुन देवी ने अपना सोने का कंकन मेरे सामने फेंक दिया . ज्यौंही उस कंकन को उठाया वह सुंदर मनोहर चषक हो गया . माया को भी देख मैं चकित हुआ . देवी ने कहा 'बाएँ हाथ में चपक को धर दक्षिण हाथ से उसे ढाको.” मैंने वैसा ही किया और यह सुंदर सुगंधित चंपक पुष्प के रंग सी मद्य कल्पवृक्ष की निकली उस चषक में भर गई-"मधुवाता ऋतायते"-यही मंत्र देवी पढ़ती रही-मैं श्याम- सुंदर और उसकी प्रानप्यारी श्यामा को अर्पण कर चढ़ा गया पीते के साथ ही मुझै अपूर्व हर्ष हुआ . मन और बदन प्रफुल्लित हो गए . नेत्र चमकने लगे . स्वाद उसका खटमधुर था . हृदयाब्जकोष को आसव से स्नान कराया . शरीर कुछ और हो गया-ई बुद्धि फिर हाथ आ गई- वेद वेदांग सब आँखों के सामने नाचने लगे . श्यामापुर की शोभा दिखाने लगी-श्यामा की खोरों में अब केवल नाम की झांई सुनाने लगी . एक बेर दृष्टि उठा कर देखा तो श्यामापुर में आग लग गई-पहले तो काबुल में लगी . उसके अनंतर ब्राह्मणों के घर जले . मेरा घर तो पहले ही जल चुका था-- अपने वंश में आँख उगरिया मैं ही बचा था . पुरुष लोग सब भस्मसात् हो गए थे. बंदर कूदने लगे-सब के सब मुछंदर लाल मुखी थे . बंदरियों को संग में लिए बगल में दबाए इस घर से उस घर कूदते फाँदते फिरते थे . एक तो लोगों के घर आप ही आग लगी थी, दूसरे ये सभों की चूल्हा चक्की ले चले . सब हाय हाय करते रह गए . कौन सुनता है-बंदर की जात कब मानती है . शाखामृग तो ठहरे-पेट भरने से काम-चाहै कोई बसै चाहै उजरै-ए बंदर सब कृष्णचंद्र के भक्त थे-इसी से तो मथुरा में अभी तक असंख्य बंदर घूमते रहते हैं-अपने ईश्वर की पुरी को नहीं छोड़ते-इन सभों में बड़ी चतुर सुग्रीव की स्त्री रुमा भी दिखानी --वह आग लगने पर प्रसन्न सी जान पड़ी क्योंकि उसने अपनी सेना को. इस दैवी उपद्रव के ऊपर उपद्रव करने से नहीं रोका . फणीस 2