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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/२०२

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श्यामास्वप्न


जब लौ बालक पुंगीफल को कतरत अँगुरिन काटै।
तब लौ चाहै कितिक सिखावो तजत न टेवँ न डाटै॥
पै गिरि कूप वार इक सोई बारंबार गिराही।
तासो बढिकै और न मूरख जगत माहिं दिखाराही॥
पढ़ि यह स्वप्न विचारि लीजिए कितने दुख की खानी।
नारी अहै जगत पुरुषन कों कहिये कथा बखानी॥
शंभु स्वयंभू हरि हू जाके बल प्रभाव रुख हेरे।
ते इन मृगनैनिन के घर के सदा दास अरु चेरे॥
वचन अगोचर चरित विचित्रहु जाके नहिं कहि जाई।
ऐसे सुमन शरासन वारे मदनहिं प्रनवौ भाई॥
जाको आदि अन्त नहिं जानौं पामर थकि थकि हारो।
शिव से जोगी भए जासु वश धन्य सु ताहि विचारो॥
पै यामें कछु शक नहिं रंचुक नारि नरक सोपाना।
जियत देय दुख दारुन देहिन मरे न कछू ठिकाना॥
यासों बार बार कर जोरे कहहुँ देखि सब रंगा।
विषपूतरि सम वाहि तरकिए तजि बाको परसंगा॥
एक मास के माहिं जबहिं मुहिं औसर मिल्यो सुहातो।
तबै विरचि रचि रचि लिख लीन्हो “श्यामास्वप्न“ प्रभातो॥
श्यामालता―स्वप्न श्यामा को तामधि “विनय” बटोरी।
देवयानि―संपत्तिलता अरु मेघदूत―रस बोरी॥
रची और पोथी जिनको मैं नाम अनुक्रम गायौ।
देवयानि के अंतिम ठौरहिं कवितसुधा बरसायौ॥
सोई विजयसुराघवगढ़ के राजपुत्र बनवासी।
श्री जगमोहनसिंह चरित यह गूढ़ कवित परकासी॥
गूढ़ मित्र हृदयंगम केवल गूढ़ अर्थ पहिचानै।
बाँचि अनंत स्वादु लहि मेरो सफल परिश्रम जानै॥