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श्यामास्वप्न


निशिचंद को देखि लखैं महाताब क्यौं तारन देखि लखैं जुगनू।
इन आँखिन रूप बस्यौ यह पानिप जानत ए हैं बड़ी लगनू॥
पुनि सूंघि गुलाब चमेली जुही हिय मेलि कनैरहिं सो ठगनू।
अब पूजिए रामहिं छाड़ि के आन कहा जगमोइन ह्वै मगनू॥६९॥
बसि के इन वैरिन बीच भयो विसवास को घात अघात बली।
हम भूलि कै भेवको पूज्यो महा दुख पायो मनो तन कूप थली॥
जपमाला हलाहल से निकरे तिलको तिल लौ न प्रबोध छली।
पुनि नीच की कौन कथा कहिए पय जान पियो विष भाँति भली॥७०॥
सुमायके में नवजोबनी बाला सनेह सकै किहि भाँति दुराय।
कहूँ बगरावति चीर अधीर समीर उड्यौ गहि कै लपटाय॥
कभू गृहकाज के व्याज चढ़ी उत ऊँचे अटा निरखै पिय आय।
विलास सहास प्रमोद भरी जगमोहन प्रीति छकी दरसाय॥७१॥
प्यारे पुरान सुनो चित लायकै पाछे यहीं करियो सुखसैनहिं।
गाँव के सोय गए अधरात सुनात परोस―न बात कहूं नहिं॥
खोर को देखत ही डर लागत चोरहु आयो सुन्यो हम रोरहिं।
माय को मेरो न चिंता कछू बसि रात इतै उठि जाईयो भोरहिं॥७२॥
टुक मानो कही अबही सबही कबहीं के गए पुनि सोय तबै।
झिमकै जल रात अँध्यारी चलै अति सीरी बयार कँपै तनवै॥
जगमोहन स्यानी घरीसी रहै पुनि रोग ग्रसी मम मातु अबै।
घर सूनो अकेली नवेली डरौं बसिकै इत काटिए रैन सबै॥७३॥
लखिकै जगमोहन डीठि बचाय सखी उर चंपक माल भई।
गर लाय रही टक लाय पियै निसि चंद चकोर लौ चाय नई॥
गुरु लोगन सामुहे बोली भलें वह घाट अकेली न जैहौं दई।
तुअ पाछे चलौंगी भलैं सुई बाट में साँझ जहाँवट खोटो हई॥७४॥
लखि पीय को जात अन्हात तहाँ गई तीय सुचाय भरी निज जीय।
उठाय लई कर कंचुकी भार दुकूल धन्यो कलसा कमनीय॥