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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/५

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( २ )

मुझे तो कुछ चेत नहीं कि क्या करता हूँ वा क्या कहता हूँ। अध-मोद्धारिनि ! इस अधम का उद्धार करो इस अधम का कर गहो। और अपने शरण में राखो। यह मेरं प्रेम का उद्गार है। तूने मुझै कहने की शक्ति दी। मेरी लेखनी को शक्ति दी तभी तो इतना बक भी गया। यह मेरा सच्चा प्रेम है कुछ ऊपर का नहीं जो लोग हँसैं। हँसेंगे वही जो मूर्ख हैं भरम में वही पड़ेंगे जिनके पापी हृदय हैं मैं तो सदा का पापी हूँ अपने को नहीं कहता तेरे शरणागत हूँ 'पाहिमाम्"-अपनी दया की कोर से मुझे अपनी ओर करो।मुख मत मोरो इसमें तुम्हारी हँसी होगी अपनाय के अब दूसरों के मत बनाओ-यहाँ तेरे नाम की माला सदा जपते हैं जपना क्या तेरा नाम मेरी हर एक हड्डी में मुद्रित हो गया है। चाहै तो देख लेव-कहूँ कहाँ तक "गिरा अनयन नयन बिनु बानी" और जहाँ तक तुम्हें जाँच करनी हो कर लो मेरी भक्ति इतने ही से जान लेना :

"लोचन मगु रामहिं उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी ।"
"तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा जानत प्रिया एक मन मोरा ॥
सो मन सदा बसत तुहि पाहीं। जानु प्रीति रस इतनेहिं माहीं ॥"

तथाच
 

नाम पाहरू रात दिन ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद यंत्रित जाहि प्राण केहि बाट॥

इत्यादि से समझ लेना-दया राखो और इसे ग्रहण करो क्योंकि यह सब तुम्हीं को समर्पित है।

इसी प्रकार 'देवयानी' के समर्पण में भी श्यामा को सम्बोधन कर कवि ने स्वीकार किया है: