पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१४० 40- M andag- 14++144PM श्रीभक्तमाल सटीक। (४६-५०)श्रीसूतजी,श्रीशौनकजी। यह बात प्रसिद्ध है ही कि सब पुगणादिक के कीर्तन करनेवाले श्री. सूतजी हैं, एवं, उनके अठासी श्रोताओं में श्रीशोनकजी प्रसिद्ध (५१) श्रीप्रचेताजी। ये दस भाई थे और दसों का नाम “प्रचेता" ही है, प्राचीन वहीं के पुत्र थे॥ पिता की आज्ञानुसार तप करने के लिये सिद्धिसर वा "नारायणसर" को जाते । पन्थ में श्रीनारदजी मिले और कृपा करके भक्ति के लिये तप का उपदेश कर दिया। दस सहस्र वर्ष तप करने के अनन्तर, गरुड़ पर चढ़े आकर भगवद ने दर्शन तथा भक्ति का वरदान दिया, पुनः एक ही लड़की से दसो भाइयों को विवाह करने की आज्ञा भी दी। उससे "एक" प्रजापति का दूसरा जन्म हुआ, जिनको राज्य दे करके दसो भाई पुनः भगवत्भजन करने के लिये बन में गए॥ देवर्षि श्रीनारदजी कृपासिन्धु के उपदेश से ऐसी भाक्ति की कि देह त्यागकर दिव्य शरीर घर भगवत् के धाम को चले गए। (५२) श्रीसतरूपाजी (श्री १०८ कौशल्याजी)। महाराज श्रीस्वायंभुवमनु की धर्मपत्नी, श्रीसतरूपा और महाराज श्रीदशरथजी की महारानी श्रीकौशल्याजी थीं ॥ चौपाई। सतरूपहिं बिलोकि करजोरे। “देवि ! माँगु बरु जो रुचि तोरे ॥" "जो बरु नाथ ! चतुर नृप माँगा । सोइकृपालुमोहिं अति प्रियलागा ॥ प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगतहित तुम्हहिं सुहाई ॥ तुम्ह ब्रह्मादि जनक जगस्वामी । ब्रह्म सकल उर अंतरजामी॥ अस समुझत मन संशय होई। कहा जो प्रभु प्रमान पुनि सोई॥ जे निज भगत नाथ ! तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं॥ दो० सोइ सुख, सोइ गति, सोइ भगति, सोइ निज चरन सनेहु ।