पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४६३

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HOM+++A ४४४ श्रीभक्तमाल सटीक । शरीर में लगने नहीं दिया, वस्न बलिवन्धन प्रभु ने उस हथियार का घाव.भापही अपने ही अंग पर ले लिया। बछड़े के संग संग डोलनेवाली गऊ की भाँति अगवत् नित्य अपने अनुगों के साथ साथ विचरा करते हैं (फिरा करते हैं)॥ (१) श्रीनिष्किञ्चन हरिपालजी, (२) श्रीगोपालजी ने जिसभक्त के लिये साक्षी दी, (३) श्रीरामदास डाकोरवाले ॥ Car इन सब भक्तों की कथा आगे आती है ॥ (५६)निष्किञ्चन नाम "हरिपाल" ब्राह्मण । (२८) टीका । कवित्त । (५५५) भक्तानि के संग भगवान ऐसे फिरलो करें जैसे बच्छ संग फिरे नेहवती गाइ है। "हरिपाल" नाम विप्रधाम में जनम लियो, कियो अनुराग साधु, दई श्री लुटाइ है। केतिक हजार लै बजार के करज ख्वाएं, गरज न सरे, कियौ चोरि को उपाइ है । विमुख को लेत, हरिदास की न दुःख देत, आये संतदार, तियासंग बतराइ है ॥ २३५ ॥ (३६४) वात्तिक तिलक। जैसी नेहवतीगऊ अपने बच्चे के पीछे फिरा करती है वैसे ही श्रीभगवान अपने भक्तों के संग संग सदा फिरा करते हैं । श्रीहरिपालजी ने एक ब्राह्मण के धाम (घर) में जन्म लिया। संतों में बड़ा प्रेम रखते और भारी साधुसेवा किया करते थे, इसी यहाँ प्रभु का 'बलिवन्धन" नाम लिखने का भाव-(१) जैसे प्रभु ने राजा बलि को ऐसे छला कि नापने के समय शरीर बढा के तीन ही पग मे सब नाप लिया, वैसे ही यहाँ अति हलके होकर आप पण्डो को ठग दिया कि अपने सारे विग्रह को केवल एक वाली के तुल्य कर दिया । (२) जैसे वलि के यहाँ प्रभु विराजे, वैसे रामदासजी के यहाँ भी। १ "श्री"=धन । २ "हजार"- सहस्र १०००।३"वजार"- हाट, नगर। ४ "करज"-- कर्ज, ऋण, उधार । ५ "हवाए"=खचाए, खिलाए, खिला दिये । ६ "गरज"-गर्ज, .. प्रयोजन, कार्य ।।