पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६३६

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aturedulmitraMarriaHamare भक्तिसुधास्वाद तिलक । श्लोक बताकर आज्ञा की कि “यही श्लोक पुत्र को पढ़ा दो।" आपने वह श्लोक पुत्र को दिया, सुत रघुनाथदास बड़े विद्वान हरिप्रेमी हुए। कृपा की जय।। (११९) श्रीलोकनाथ गुसाईजी। (४७३) टीका । कवित्त । (३७०) महाप्रभु कृष्णचैतन्यजू के पारषद, खोकनाथ नाम, अभिराम वि रीति है। राधाकृष्ण लीलासौं रंगीन मैं नबीन मन, जैसे जल तीन तैसें निसि दिन प्रीति है | "भागवत" गान रसखान, सो तो माणतुल्य अति सुख मान, कहैं गांव जोई मीति है। रसिक प्रवीन मग चलत चरण लागि, कृपा के जनाय दई, जैसी नेह नीति है ॥३७६ ॥ ( २५०) वात्तिक तिलक । महाप्रभु श्रीकृष्णचैतन्यजी के आप शिष्य थे, “लोकनाथ" नाम था। आपकी सब रीति अति अभिराम थी। श्रीराधाकृष्णजी की नवीन लीला में आपका मन भली भाँति रंगा था, जैसे जल की पीति मीन को वैसे ही आपको भी रूप नाम लीला धाम से प्रेम था। शृङ्गारमाधुर्यनिष्ठा में बड़े दृढ़ थे। श्रीवृन्दावन धाम से अतिशय प्रीति थी। श्रीमद्भागवत का गान कीर्तन सदा आपके प्राण सरिस था और श्रीमद्भागवत पाठ मान करनेवालों से बड़ा प्रेम रखते थे, यह कहते थे कि “भागवत पढ़नेवाले हमारे मित्र हैं।" एक दिन रसिकप्रवीणजी मार्ग चलते एक को श्रीभागवत गाते सुन उसके पाँवों पर गिर पड़े. और कृपा करके यह भेद उसको जना दिया जिससे औरों को भी श्रीभागवत ग्रन्थ और भागवत का माहात्म्य प्रसिद्ध हुआ। एक दिन इनके ठाकुर के भूषण चोरों ने चुरा लिये। थोड़ा आगे जाके सव अन्धे होकर लौट आए श्रीरसिकजी के चरणों पर पड़े, आपने कृपाकर उन सबको सनाथ किया।