पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१३९

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( ८९ )

[ विजय-छद ]


सु दर सेत सरोरुह मैं करहाटके' हाटक की युति को है ?
तापर भौंर भले मन रोचन लोक-विलोचन की रुचि रोहै।
देखि दई उपमा जलदेविन दीरघ देवन के मन मोहै ।
केशव केशवराय मनो कमलासन के सिर ऊपर सोहै ।। ८५ ।।

लक्ष्मरण

[ सवैया ]


मिलि चक्रिन चदन वात बहै अति माहत न्यायन ही मति को।
मृगमित्र विलोकत चित्त जरै लिये चद निशाचर पद्धति को।
प्रतिकूल सुकादिक होहिं सबै जिय जानै नहीं इनकी गति को ।
दुख देत तडाग तुम्है न बनै कमलाकर है कमलापति को ॥८६॥


( इति अरण्य काड )








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(१) करहाटक = कमल पुष्प के बीच की छतरी । (२) हाटक = नाना । (३) कमलासन - ब्रह्मा । (४) चक्रिन = सर्प । (५) मृग-मंत्र चद्रमा।