पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१५७

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बिड कन घन घुरे भच्छि क्यों बाज जीवै ?
सिवसिर ससि श्री कों राहु कैसे सो छीवै ॥२४॥
उठि उठि सठ ह्याँ तै भागु तौ लौ अभागे ।
मम वचन बिसर्पी सर्प जौ लौ न लागे ।।
विकल सकुल देखौं आसु ही नाश तेरौ ।
निहत मृतक तोकौं रोप मारै न मेरौ ॥२५॥
दो०] अवधि दई द्बै मास की,कह्यो राच्छसिन बोलि। "
ज्यौं समुझैं समुझाइयो, युक्ति-छुरी सौ छोलि ॥२६॥
मुद्रिका-प्रदान
[चामर छद]
देखि देखि कै असोक राजपुत्रिका कह्यौ ।
देहि मोहिं आगि तै जो अग आगि ह्रै रह्यौ।।
ठौर पाइ पौनपुत्र डारि मुद्रिका दई ।
आसपास देखि कै उठाय हाथ कै लई ॥२७॥
[तोमर छद]
जव लगी सियरी हाथ । यह आगि कैमी नाथ ॥
यह कह्यौ लषि तब ताहि । मनि-जटित मुंदरी आहि ॥२८॥
जब बाँचि देख्यौ नाँउ । मन परयो सभ्रम भाउ ॥
आवाल ते रघुनाथ । यह धरी अपने हाथ ॥२९।।
बिछुरी सो कौन उपाउँ । केहि आनियो यहि ठाउँ ।
सुधि लहौं कौन उपाउँ । अब काहि बूझन जाउँ ॥३०॥


(१) बिड = विष्ठा । (२) बिसपीं = फैलनेवाले।