पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१५९

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ज्यौं नारायण उर श्री बसति ।
त्यौ रघुपति उर कछु द्युति लसति ॥
जग जितने हैं सब भूमि भूप ।
सुर असुर न पूजै रांम रूप' ॥ ३७॥
[ निशिपालिका छंद ]
सीता--मोहिं परतीति यहि भाँति नहिं आवई ।
प्रीति कहि धौं सु नर वानरनि क्यौं भई ॥
बात सब वर्णिं परतीति हरि त्यौं दई।'
आँसु अन्हवाइ उर लाइ मुंदरी लई ॥ ३८ ॥
[दो०] आँसु बरषि हियरे हरषि, सीता सुखद सुभाइ।
निरखि निरखि पिय मुद्रिकाह,बरनति है बहु भाइ॥३९॥
मुद्रिका वर्णन
[ पद्धटिका छंद ]
यह सूरकिरण तम दुःखहारि ।
ससिकला किधौ उर सीतकारि ।।
कल कीरति सी सुभ सहित नांम ।
कै राज्यश्री यह तजी राम ।। ४० ।।
कै नारायन उर सम लसति ।
सुभ अंकन ऊपर श्री बसति ।।
वर---विद्या सी न ददानि ।
युत अष्टापद' मनु शिवा मानि ॥४१॥ .


(१)अष्टापद = शार्दूल, सेाना ।