पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१६

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( १० ) केशवदास ने साहित्य-शास्त्र के सभी अंगों पर कुछ न कुछ लिखा है। रसिकप्रिया ( रचना-काल-सं० १६४८) मे परपरा- गत परिपाटी के अनुसार रस का विवे- चन है। संस्कृत के रस-निरूपक ग्रथों से इसमे यही भेद है कि इसमे केशव ने नायिका भेद दिखलाते हुए प्रत्येक भेद के प्रकाश और प्रच्छन्न दो उपभेद किए है। कविप्रिया (१६५८) अल कार-अथ है। दूसरे केशव मिश्र के अलं- कार-शेखर के अनुमार अलकार शब्द का इसमे बहुत व्यापक अर्थ किया गया है और उसके वर्णालंकार, वालकार और विशेषालंकार तीन भेद बताए गए है। वर्णाल कार के अतर्गत भिन्न रंग, वालकार में शेष वर्णनीय विपय और विशेषालंकार मे सामान्य काव्यालकार लिए गए हैं। काव्यालकारों का वर्णन सामान्यतया पुरानी ही परिपाटी के अनुसार है। रस भी इस ग्रथ मे अलंकारों की सामग्री माना गया है और रसमय स्थल रसवत् अलकार की सीमा में चले आए है। इन दोनों ग्रंथों मे भेदोपभेद की ओर केशव ने विशेष प्रवृत्ति दिखलाई है और कितने ही ऐसे भेदों का उल्लेख किया है जिनके लिये वस्तुतः कोई कारण नहीं है। परतु इसमें सदेह नहीं कि इन दोनों ग्रथों मे उदाहरणों के रूप में जो पद्य दिए गए है वे सुदर और चमत्कारपूर्ण है। शब्द-विन्यास भी श्लाघनीय है। परतु रसिकप्रियावाले पद्य अधिक सरस और प्रांजल हैं। 'नखशिख' साधारणतया अच्छा प्रथ है जिसमें