पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १२८ )

गहौ राम-पायँ, सुख पाइ करै तपी तप,
सीताजू को देहु, देव दुदुभी बजावहीं॥३९॥
[वशस्थ छंद]
रावण--तपी जपी विप्रनि छिप्र ही हरौं।
अदेव-द्वेपी सब देव संहरौं।
सिया न दैहौं, यह नेम जी धरौं।
अमानुषी भूमि अवानरी करौं॥४०॥
अगद--[विजय छद]
पाहन तैं पतिनी करि पावन टूक कियो हर को धनु को रे
छत्र-विहीन करी छन मैं छिति गर्व हरयो तिनके बल को रे
पर्वत-पुंज पुरैनि के पात समान तरे, अजहूँ धरको रे
होइँ नरायन हूँ पै न ये गुन, कौन इहाँ नर वानर को रे? |४१
[चचरी छ द]
रावण--देहिं अंगद राज तोकहँ, मारि वानरराज कों।
बाँधि देहि विभीषनौ अरु फोरि सेतु-समाज कों॥
पूँछ जारहि अच्छरिपु की, पाइँ लागहिं रुद्र के।
सीय कों तब देहुँ रामहिं, पार जाइँ समुद्र के॥४२॥
अंगद--लंक लाइ गयौ बली हनुमत, सतन गाइयो।
सिंधु बाँधत सोधि कै नल छीर छीट बहाइयो।
ताहि तोहि समेत अंध, उखारि हौं उलटी करौं।
आजु राज कहाँ विभीषण बैठिहैं, तेहितै डरौं॥४३॥