पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१९२

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मारयो विभीषन गदा उर जोर ठेली।
काली समान भुज लक्ष्मण कठ मेली॥१०९॥
गाढ़े गहे प्रबल अंगनि अंग भारे।
काटे कटै न बहु भाँतिन काटि हारे॥
ब्रह्मा दियो वरहि अस्त्र न शस्त्र लागै।
लै ही चल्यो समर सिंहहि जोर जागै॥११०॥
गाढ़ांधकार दिवि भूतल लीलि लीन्हो।
अस्तास्त मानहुँ शशी कहँ राहु कीन्हो।
हाहादि शब्द सब लोग जहीं पुकारे।
बाढ़े अशेष अँग राक्षस के बिदारे।
श्री रामचंद्र पग लागत चित्त हर्षे।
देवाधिदेव मिलि सिद्धन पुष्प वर्षे॥१११॥
रावण कृत संधि-प्रस्ताव
[दो०] जूझत ही मकराक्ष के, रावन अति दुख पाइ।
सत्वर श्रीरघुनाथ पै, दियो बसीठ पठाइ॥११२॥
[सुंदरी छद]
दूतहि देखत ही रघुनायक। तापहँ बोलि उठे सुखदायक॥
रावण के कुशली सुत सोदर। कारज कौन कर अपने घर॥११३॥
दूत--[विजय छंद]
पुजि उठे जबहीं शिव को तवहीं विधि शुक्र बृहस्पति आये।
कै विनती मिस कश्यप के तिन देव अदेव सबै बकसाये॥