पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२११

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राम--[पद्धटिका छद]
सुनिजै वसिष्ठ कुलइष्टदेव। इन कपिनायक के सकल भेव॥
हम वूडत हे बिपदा-समुद्र। इन राखि लियो संग्राम रुद्र॥१५॥

अवध-प्रवेश
[सु दरी छद]
अवधपुरी कहँ राम चले जब। ठौरहि ठौर विराजत हैं सब।
भरत भये शुभ सारथि शोभन। चमर धरे रविपुत्र विभीषन॥१६॥

[तोमर छद]
लीनी छरी दुहुँ बीर। शत्रुघ्न लक्ष्मण धीर।
टाएँ जहाँ तहँ भीर। आन दयुक्त शरीर॥१७॥

[दोधक छद]
भूतल हू दिवि भीर बिराजै। दीह दुहूँ दिसि दुदुभि बाजै॥
भाट भले बिरदावलि गावै। मोद मनौ प्रतिबिंब बढ़ावै॥१८॥
भूतल की रज देव नसावै। फूलन की बरषा बरषावै॥
हीन-निमेष सबै अवलोकै। होड परी बहुधा दुहुँ लोकै॥१९॥

अवध-वर्णन
[विजय छ द]
चढ़ी प्रतिमदिर सोभ वढीं,
तरुनी अवलोकन को रघुनंदनु।
मनौ गृहदीपति देह धरे,
सु किधौ गृहदेवि विमोहति है मनु॥

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