पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२१४

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[दडक]
राम--पौरिया कहौं कि प्रतीहार कहौं, किधौं प्रभु,
पुत्र कहौ मित्र, किधौं मत्री सुखदानिए।
सुभट कहौ कि शिष्य, दास कहौ किधौं दूत,
केसौदास हाथ को हथ्यार उर आनिए।
नैन कहौ, किधौं तन मन, किधौं तनत्रान,
बुद्धि कहौ, किधौं बल-विक्रम बखानिए।
देखिबे को एक है, अनेक भाँति कीन्हीं सेवा,
लखन के मात ! कौन कौन गुन मानिए॥३१॥

श्रीराम-कथित राज्यश्री-निंदा
अगस्त्य-[दो०] मारे अरि पारे हितू, कौन हेत रघुनंद।
निरानंद से देखियत, यद्यपि परमानद॥३२॥

श्रीराम-[तोमर छंद]
सुनि ज्ञान मानसहंस। जप योग जाग प्रशस॥
जग माँझ है दुख-जाल। सुख है कहाँ यहि काल॥३३॥
तहँ राज है दुख-मूल। सब पाप को अनुकूल॥
अब ताहि लै ऋषिराय। कहि कौन नर्कहि जाय॥३४॥
[दो०] धर्मवीरता विनयता, सत्यशील आचार।
राजश्री न गने कछू, वेद पुराण बिचार॥३५॥

[चौपाई]
सागर मे बहुकाल जो रही। सीत वक्रता शशि ते लही।
सूर तुरंग चरणनि ते तात। सीखी चचलता की बात॥३६॥