चोरि पुत्र द्वै पुत्र सुत, कौशल्या तब देखि।
पायौ परमान द मन, दिगपालन सम लेखि॥२९७॥
[रूपमाला छंद]
यज्ञ पूरन कै रमापति दान देत अशेष।
हीर नीरज चीर मानिक वर्षि वर्षा वेप॥
अगराग तडाग बाग फले भले बहु भॉति।
भवन भूषण भूमि भाजन भूरि बासर राति॥२९८॥
[दो०] एक अयुत गज वाजि द्वै, तीनि सुरभि शुभवर्ण।
एक एक विप्रहिं दयी, केसव सहित सुवर्ण॥२९९॥
देव अदेव नृदेव अरु, जितने जीव त्रिलोक।
मन भायौ पायौ सबन, कीन्हें सबन अशोक॥३००॥
राज्य-वितरण
अपने अरु सोदरन के, पुत्र विलोकि समान।
न्यारे न्यारे देश दै, नृपति करे भगवान॥३०१॥
कुश लव अपने, भरत के न दन पुष्कर तक्ष।
लक्ष्मण के अ गद भये चित्रकेतु रणपक्ष॥३०२॥
[भुजगप्रयात छंद]
भले पुत्र शत्रुघ्न द्वै दीप जाये।
सदा साधु सूरे बडे भाग पाये॥
सदा मित्रपोषी हनैं शत्रु छाती।
सुबाहै बडो दूसरो शत्रुघाती॥३०३॥
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