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पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२६६

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करौ न मत्र मूढ सौं न गूढ मत्र खोलिए ।
सुपुत्र होहु जै हठी मठीन सौ न बोलिए ॥
वृथा न पीडिए प्रजाहि पुत्र मान' पारिए ।
असाधु साधु बूझि के यथापराध मारिए ॥
कुदेव देव नारि को न बालवित्त लीजिए ।
विरोध विप्रवश सो सो स्वप्नहू न कीजिए ॥३१०॥
[ भुजगप्रयात छंद ]
पर-द्रव्य को तौ विषप्राय लेखौ ।
परस्त्रीन से ज्यौ गुरुस्त्रीन देखौ ॥
तजौ काम क्रोधौ महा मोह लोभौ ।
तजौ गर्व कौ सर्वदा चित्त छोभौ ॥३११॥
यशै सग्रहौ निग्रहौ युद्ध योधा ।
करौ साधु ससर्ग जो बुद्धि बोधा ॥
हितू होइ सो देइ जो धर्मशिक्षा ।
अधर्मीन को देहु जै वाक भिक्षा ॥३१२॥
कृतघ्नी कुवादी परस्त्रीविहानी ।
करौ विप्र लोभी न धर्माधिकारी ॥
सदा द्रव्य सकल्प को रक्षि लीजै ।
द्विजातीन को आपुही दान दीजै ॥३१३॥



(१) पुत्र मान=बेटे की तरह। (२) पारिए=पालिए। (३) कुदेव=(कु + देव) भूमिदेव, ब्राह्मण।