दडक (कवित्त ) हिंदी का एक सु-परिचित छंद है, परंतु उसके भी जगमोहन, अनगशेखर, मत्तमातग, लीलाकरन आदि ऐसे उपभेद रामचंद्रिका में मिलते हैं, जो बिलकुल अपरिचित लगते है। बहुत से छंद ऐसे हैं जिनको हम या तो पिंगल ग्रंथों में ही पाते है, या इसी काव्य मे। कुछ तो केशव के ही निर्मित किए हुए हैं जिनमें से एकाध निस्संदेह बहुत सुंदर और काव्योपयोगी हैं, उदाहरण के लिये गगोदक और पद्मावती; पहला सवैए के मेल का है और दूसरा त्रिभगी के। यही नहीं, लबे से लंबे और छोटे से छोटे सब छंद उसमें पाए जाते हैं। , अथारंभ में एकाक्षरी से लेकर क्रम से अष्टाक्षरी तक छंद दिए हुए हैं। सी। धी॥री। धी॥ यह श्रीछंद है, राम । नाम ॥ सत्य । धाम ॥ सार छद, दुख क्यों । हरि है ॥ हरि जू । हरि है ।। रमण छंद, बरणिवो । बरण सो ॥ जगत को। शरण सो ॥ तरणिजा, सुखकंद हैं। रघुनौंद जू ॥ जग यों कहै। जगवद जू ॥ प्रिया, गुनी एक रूपी। सुनो वेद गावै ॥ महादेव जाको । सदा चित्त लावै ॥ सोमराजी, विरंचि गुण देखै । गिरा गुणनि लेखै ॥ अन त मुख गावै । विशेषहि न पावै ।। कुमार ललिता और भलो बुरो न तू गुनै । वृथा कहै सुनै । न रामदेव गाइहै । । न. देवलोक पाइहै । नागस्वरूपिणी । प्रबध-काव्य मे इतने छोटे-छोटे छदों की अनुपयुक्तता स्पष्ट है। इनकी असल जगह पिंगल के ही ग्रंथों मे हो सकती है। फिर भी इनको इसमे जगह मिली है। कवित्त, सवैए, त्रिभगी
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