"रघुराज सुनो तप के वस जद्यपि, रावरे के गल माहि परे । ववहूं न लहैं सरि रुक्मिनि के पद की.मधु व्याजहि आसु भरे॥ - इनके दूसरे बड़े ग्रंथों के नाम ये हैं-आनंदांबुनिधि, राम रसिकावली, भक्ति विलास, सुंदर..शतक, गंगा-शतक, जग- दीश-शतक, चित्रकूट-माहात्म्य, रामस्वयंवर, पदावली, रघुराज विलास, विनयपत्रिका और विनय प्रकाश । इनको छोड़कर और भी कई छोटे छोटे अष्टक और स्फुट कविताओं का निर्माण किया है। आनंदांत्रुनिधि एक विशद.ग्रंथ है जिसमें श्री मद्भाग- चत के वारहो स्कंधो का पद्यमय अनुवाद है। इसकी कविता भी सराहनीय है और यह अनेक प्रकार के छंदों में रचित है। इस की कविता का भी एक उदाहरण लीजिए-. . . सवैया • पद पंकज पंजर में ललना, यह तीतुरी नूपूर सोर- करें। मम कानन धार सुधा सी ढरे नहिं नैनन में कछु मोद ढरै॥ वन में वसिकै तरकोत्वच त्यागि,कदंब प्रभा पट काहे धरै। - येहि हेतु कसी कल किकिती तूं कटि मेरी कहनहिं दृटि परै।। . रामस्वयंवर एक घड़ा काव्यग्रंथ है और इसमें भी अनेक प्रकार के छंद हैं, पर अधिकांश चौवोला छंद ही है। इस ग्रंथ के अन्त में महाराज रघुराजसिंह ने इसके प्रणयन का यह कारण लिखा है। महाराज रघुराजसिंह एक समय काशी आए हुए थे। उस समय काशिराज महाराज. ईश्वरीनारायण सिंह रामनगर की गद्दी पर शोभायमान थे । रामनगर में s
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