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पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/१६४

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रामस्वयंबर।

तहँ हम कौशिक शतानंद मिलि लग्न बिचारि घतैंहैं।।
यही कियो सिद्धांत उभय नृप सुखी भए सब लोगू।
माँगि विदेह विदा दशग्ध सों चल्यो भवन विन सोगू।।८७८।।

(दोहा)

संध्या करि सिगरे तहाँ किये विआरी जाय।
रैन सयन कीन्हें सुखी पितु जुत चारिहु भाय।।८७६॥

(छंद चौबोला)

गए विदेह गेह दशरथ के सने सनेह सुखारी।
किया सैन भरि चैन रैन महँ संध्यादिक निरधारी॥
ब्रह्म मुहरत उठ्यो महोपति ब्रह्म निरूपन कीन्ह्यो।
प्रातकृत्य करि कीन्ह्मे मजन सजन सँग मन दीन्ह्मो।।८८०॥
शतानंद अरु सचिव सुदावन धावन पठै बुलायो।
पुनि वशिष्ट अरु विश्वामित्र बुलावन दूत पठायो।।
शतानंद सों कह्मो जनक तव आसुहि दूत पठाओ।
साँँकाशी नगरी कोसी कुशध्वज को बुलवाओ॥८८१॥
सुनि विदेह के वचन पुरोहित चारन चारि बुलायो।
वेगवंत दै चारि तुरंगम सासन सपदि सुनायो।।
तरल तुरंग दूत चढ़ि धाए गए पुरी संकासी। . .
करि बंदन कुशकेतु चरन गहि कहे वचन सुखरासी ॥८८२॥
सुनि मिथिलेश-निदंस सीस धरि लै सिगरो रनिवासा।
सैन साजि चतुरंग चल्यो चढ़ि स्यंदन परम प्रकासा॥
शीरध्वज महराज सभा महँ वीर कुशध्वज आयो।