रामस्वयंबर। १७३ निज निवास आये रघुराई । आनंदह के आनंददाई ॥ पिताह प्रनाम श्रीन सिरनाई।दै आसिप चोल्यो नपराई । (दोहा) सुनहु राम अभिगम अब, करहु जाय माराम । सांझ समय मिथिला नृपति, ऐहैं हमरे धाम ॥५४॥ सुनि पितु सासन बंधु जुत, करि पुनि पितहि प्रनाम । गये राम आराम हित, जहँ अभिराम अराम ॥५५॥ (चौपाई) निसासिरानिभयो भिनुसारा । पूरब दिनकर फिरनि पसारा॥ उटयो चक्रवर्ती महराजा । सुमिरि गड़गामी छघि छाजा रघुकुलतिलफ उठे जुत भाई। पूजन मजन करि सुख छाई। लक्ष्मीनिधि उत जनक पठाये । देन निमंधन के हित आये। प्रेम मगन नृप गिरा उचारी । कहिया पितुहि प्रनाम हमारी॥ पुनि कहियो अस सो सुखदाई । जो मोहिं राउर होय रजाई ॥ लक्ष्मीनिधि तहँ यंदन करिकै । गयो महल मंडित मुद भरिक। इतै करी अवधेख तयारी । महल पधारन हेतु सुखारी ।। धूरि पूरि नभ भूरि उड़ानो । चली सैन्य नहिं जाय नखानी॥ भई खबर महलन महँ जाई । आवत अवधनाथ नृपराई । समधी आगम मनहि विचारी । पागू लेन चल्यो पगु धारी। किये प्रानम परस्पर दोऊ । वंदे जथा जोग लव कोऊ ॥ सभा सदन दशरथ पगु धारे। सिंहासन यक अमल निहारे ॥ बैठे तार भूपति छोई । दाहिने दिलि दशरय मुदोई।
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