पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२०८

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रामस्वयंवर।

रामस्वयंवर। सुनत राम नेसुक सुलफाई । उतरे सिंधुर ते अतुराई ॥ लपन भरत रिपुहनहि हंकारी । घले सहज धनु-सायक-धारी ।। पिता समीप ठाढ़ मे जाई । हर्ष विपाद न कछु उरल्याई ॥ . तिहि छन रघुपति शिया प्रनामा । तथा बंधु लैलै निज नामा । राम रूप छवि राम निहारे । प्रथमहि मोहि अमर्प विसारे । पुनि सुधि करिशंकर-अपराधा।कियो राम पर कोप अगाधा॥ (दोहा) पुनि सम्हारि भृगुनाथ तह, ऐसा किया विचार । कैौन पाप को फल प्रगट, कियो दया संचार ॥१६५।। मारन लायक नहिं सुंबन, नरभूपन जग माहि ॥ जो सरनागत होय सम,अभय करौं यहि काहि ॥१६॥ अस विचार भृगुनाथ फरि ले कुटार धनु हाथ ॥ बोल्यो बहुरि वशिष्ठ सों, तनय कपास्त माथ ॥१६७ (कवित) गुर अपराध सुधि करत अगाध कोप, ब्रह्मसुत को अगाधि देत बैन माख्या है। ब्रह्मऋषि गाधिसुत दोऊ रहे श्राप इतै, शंभुधनु तारत में काहे नहिं माख्या है। कबते विचारयो मोहिं छमामान छानी मध्य, भुजबल और मेरो छत्री कौन साख्यो है। " मारि सुधि कै विश्वामित्र तो पराय गयो, आप गुरु द्रोही ल्याच मेरे गाव राख्दा है ॥१६॥