पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२११

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रामस्वयंवर।

रामस्वयंवर। १६५ परशुराम- बाल विचारितेरे वध को बचाय देहु ऐसे विप्र हो न जस जानै जड़ मेाहि रे। सुने रघुराजमुत छत्रिन निछत्र- घर परम कठोर मोर परशु ले जाहि रे । सोच पस करै काहे मातु पितुहको आज जाय जमपुर में बसेरो करै मोहि रे । ना ते कहे देत है। कुठार कंठ देत विना हेत सेत मेत काहे कालकौर होहि रे ॥२१॥ लक्ष्मण- जानी हम जानी विप्र तू तो वीर मानी बड़ा फरसी उठाय के दिखावे बारबार है। अवै रघुवंसिन के रन में न देखे मुख फूकिक उड़ावन तू चहत पहार है। मारि मारि छोटे छत्री बाढयो गर्व गाढ़ो तोहि भयो भट भेंट नहिं वीर चलवार है । जा दिन निछत्र कीन्ह्यो राम चितिमंडल में तो दिन रहो न रामचंद्र अवतार है ॥ २११ ॥ जप तप योग याम यमहू नियम व्रत ब्रह्मचर्य शम दम विप्रधर्म हो। रे। छोडि निज धर्म धरयो छनिन को धर्म धनु चान फरसी को धरि आयो कोप मोइरे ॥ हैं। तौ रघुराजसुत ब्राह्मन विचारि बचा, नातौ पुनि चीन्ह न परैगो मुख धोइ रे। विप्रवध अघनाल गावे माहिं बारे - डारे रघुवंसी नाहि कालहूं को जो रे॥ २१२ ॥.