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पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२१७

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२०१
रामस्वयंवर।

२०१ रामस्वयंबर। (दोहा) द्वंद्व युद्ध दे माहिं अब करि प्रसन्न रन माहि। अहँ चाहै तह जाय पुनि मार हेतु पछु नाहि ॥२४टा नदि में, नहीं तेरो पिता, नहिं तेरे कोड बंधु।' नहिं तेरौ गुरु बाचिहै लखै कुठारहि कंधु ॥२४॥ . (कवित्त) लेत गुरु नाम राम भौंह भई याम अति घोल्यो बलधाम अय कहियो समारिकै । लपन सौहारो दोप उनको हमारो गुनौ मनै द्विज मानि हम तू भने प्रचारि के ॥ टेढ़ी जानि संका मानि चौध चन्द्रमा को राहु, सै नहिं धावै पूर्व पूरन निहारिकै देखियो हमारा विप्र विक्रम विदित विश्व, अवलौं बचायो बूढो बालन विचारि के ॥ २५० ॥ (दोहा) मोही गुरुद्रोही कहत, तोही कहत न कोय । काटि दंत गुरु-सुबन को, जसी जगत में होय ॥ २५१॥ आये चढ़ि रन करन को, वीर वापुरे मारि। परथो न गाढ़ो समर कहुँ, अब तो परी निहारि ॥२५॥ (कवित्त) ऐसे भापि मापि राम राम हाथही सो वाप सायक छड़ाय प्रति चटक चढ़ाया है। चंचलासोचमपयो ढुंधा चौंध भरयो चख भये सब चकित चितै अचर्य आयो है । बैंचत में पंचत में चपल चढ़ावत में बान के लगायत न काह को