रामस्वयंवर। याही हित हमहू अरु तुमहूं लियो मनुज अवतारा। अब तुम बसहुन्नि मह जव लगिहरौं भूमि करभारा॥३७॥ प्रभु-निदेस सुनि पावक प्रविसी प्रमुदित जनककुमारी। छायारूप कुटी मह राख्यो देवन हेतु विचारी ॥ पनि माया कुरंग मारीवहुँ छायालियहि लुभायो। धरि रघुबरधनुधर धनु सर कर हरवर मृग पर धायो॥३७॥ जती वेप रावन इत आयो छाया रूप लिया को। लै हरि चल्योलंक धरि स्यंदन गोधराज लखिताको॥ 'ठादा रहु ठाढा रहे' अस कहि मारि खरन रथ टोरयो। लिव छुड़ाय छायावपु सिय को दसकंधर मुख मोरयो॥३८॥ चल्यो गगनपथ छायाबपु लै राख्यो लंकहि जाई । इतै कपटमृग सारि लषन जुत लौटे द्रुत रघुराई । कुटी सूनि लखि हेरत बन बन गवने दच्छिन नाथा। मनहुँ विकल अति विलपत पद पद चले लषन प्रभु साथा ॥ कछुक दूर भागे चलि रघुपति बिकल विहंग निहारयो । कृपानिधान जटायु अंगरज निज जटानि सो झारयों॥ प्रभुपद परसि गीध तनु त्याग्यो निज हाथन करिकरनी। गोधराज कह दई राम गति वेद पुरानन बरनी ॥३८२॥ चले कछुक लखि अजामुखी राक्षसी भयानक रूपा। कान नाक कुच काटिलपन तिहि कीन्हों विकल विरूपा॥ पुनि कबंध जोजन भुज पासहि परे लपन रघुराई । कियो बाहुजुग खंड खा सो दोन्ह्यों साप मिटाई ॥३८३॥
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