पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२३७

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२२१
रामस्वयंवर।

रामस्वयंबर। २२१ हनूमान कहँ मुद्रिका दीन्यो राजकुमार ॥३८॥ पवनपूत पूरन प्रबल करिहै सबसि पयान । अब बिचारि बोल्यो विलखि कस पैठे हनुमान ॥३८६॥ लिये निसानी देन को सुचित चैठ किहि हेत। ' कस न कूद सागर सपदि सिय सुधि ल्यायन देत ॥३६०॥ (कवित्त) बचन निरे रिच्छपति के घनेरे सुनि बाढ़े बोर रंग के उमंग अंग तेरे हैं। नयननि को फेरे औतरेरे दिसि दच्छिन ले भुजन को हेरे त्योंही पूछ को मुरेरे हैं। मानि लेक नेरे है निसंक महायोर टेरे मारि करौं देरे भट लंकापति केरे हैं। रोम केरे शारंगते चलें प्रेरे सायक ज्यों जैहों लंफ सुनौगेसवेरे गुन मेरे हैं ॥ ३६१॥ - (दोहा) बपु बढ़ायं ऐंडाय फपि भयो प्रलय रवि रूप। भीन्हो लोर कठोर अति प्रलय जलद अनुरूप ॥३६२॥ (कवित्त) चल्यो लंकनगर पो मारुत डगर हैकै मारुत को नंद मारुतै की गति धरि कै। दूजो मार्तंड लों अकास में प्रकास. मान, मार्तड डरि भाग्यो ग्रसियो बिचारिकै ॥ फूलन झरत फूले फूले तरु संग उड़े, चले पहुँचा मनो बंधु लोक टारिकै। रघुराज भोद छाये दुंदुभी बजाये देव, जै जै कहि गोये राम- दूत को निहारिकै ॥३६॥