२४७ रामस्वयंवर. कहो विभीषण वचन तव, करि अचरज मनमाहिं ॥५५५॥ राम लपण को छाडिक, अंगद सुगल समेत। ... पूछतु पवनकुमार को, ऋक्षराज किहि हेत ॥५५६॥ जांववान वोल्यो वचन, सुनहु विभीषण भ्रात । जिहि कारन हनुमान को, मैं पूछहुं यह वात ॥५५७॥ जीवत हठि हनुमान के, मरेहु जियत सम कीस । नहिं जीवत हनुमान के, जियत मरे सम दीस ॥५५८॥ च्छराज के बचन सुनि, गहो चरन हनुमान । कह्यो वचन में जियत हौं, देहु सीख मतिमान ॥५५६॥ 'जांववान हनुमान को, वोल्यो कंठ लगाय । मानदान दल को करहु, औषध पर्वत लाय ॥५६०॥ (कवित्त) जांववान को बखान सुनि हनुमान वीर, भयो घलवान मेरु मंदर समान है । आसमान पंथ है पयान हनुमान करि, उठि एडाय उड्यो मानो हरियान है । कीन्ह्यो सोर चेप्रमान दीन्हो भीति जातुधान, लीन्हो वीर वेगवान वेग वेप्रमान है। रघुराज सुमिरि कृपानिधान भगवान , अति अतुरान देन हेत प्रानदान है ॥५६॥ पहुँच्यो कपीस गिरि औषध समीप जाय, हेरै कौन औषध यो मन में विचार के। केसरी-किसोर यरिवंड भुज- दंड ठोकि, चल्यो आसु औषधी को पर्वत उखारिकै ॥मार्तड मारग में मार्तडही सो लस्यो मार्तडवंसमार्तड उर धारिके।
पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२६३
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