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पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२८

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११
रामस्वयंबर।

शांता शृंगी ऋषि संयुत नृप जवहिं नगर नियराने। लिये सकल अगुवान पौरजन दरसन हित ललचाने ॥५॥ होत धुकार दुंदुभिन के अरु वजत संख सहनाई। . खैरभैर चहुं ओर मच्यो अति आनंद पुर न समाई ॥ शृंगी ऋपि को आगे करिकै नगर सुहावन राजा। कियो प्रवेससहित रनिवास हुलासित सकल समाजा॥५८॥ राजकुमारी सहित मुनीसहि देखि महा मुद ठयऊ । भूप चक्रवर्ती दसरथ सुरपति सम सोभित भयऊ ॥ प्रविसि राजमंदिर महँ नरपति अंतहपुर मह जाई। शांता सुता सहित शृंगी ऋपि पूजन कियो महाई ॥५६॥ करि पूजन विधान जुत नरपति विमल अवास टिकायो। अपने को कृतकृत्य मानि नृप संपति विविध लुटायो। त्रिशत साठि त्रय महगनी लखि सुता और जामाता। रोज रोज सतकारहि पुनि पुनि पानंद उर न समाता॥३०॥ (दोहा) एक दिवस नरनाथ तह, शृंगी ऋषि ढिग जाय । बिनय किया कर जोरि कै, करहु यज्ञ मन लाय ॥६॥ (छंद चौवोला) श्रृंगी ऋषि तब एवमस्तु कहि कह सुनु भूप उदारा। तजहु तुरंग संग सुभटन के दै द्रुत विजय नगारा, तव राजा सुख मानि सभा चलि तुरत सुमंत वुलाई ॥ कह्यो ब्रह्मवादी बोलवावहु सकल पुरोहित जाई ॥१२॥