२६६ रामस्वयंवर। सकुचि विलखि पुलकित तनु माता|उरलगाय लिय सुखन समाता पुनि प्रभु कौसल्या ढिग जाई । परे चरन निज नाम सुनाई। जननी लियो अंक बैठाई । वत्स हिरान..लयो जनु गाई॥ तिहि अवसर लछिमन अतुराई । गिसो कौसिला-पद महँ आई ।। लियो उठाइ अंक महँ माता । चूमवि पुनि पुनि सुखजलजाता॥ तब उठि भरत सपुलकित गाता । वोल्यो मंजु वचन अवदाता॥ अब प्रभु लेहु राज्य कर भारा । एक मनोरथ अहै हमारा॥ होय नाथ राउर अभिषेका । पालहु प्रजा सदा सविवेका॥ कह्यो सुमंतहि रानि वुलाई । चारिहु सुअन देहु नहवाई। भूपन वसन सकल पहिरावहु । अंगराग मृदु अंग लगावहु ॥ राम भरत निज कर नहवाए । भूपन वसन विविध पहिराए । . (दोहा) जब मजन करि चुकत भे, रघुपति बंधुसमेत। गुरु वशिष्ठ आवत भए, गवन करावन हेत ॥६४०॥ (चौपाई) कहो वचन गुरु सुनहु नरेसा ।आजु सुभग दिन चलहु निवेसा॥ प्रभु तथास्तु कहि कियो प्रनामा । लै गुरु गए भरत के धामा ॥ कह्यो सत्रुहन सचिव बुलाई । ल्यावहु. रथ सुंदर सजवाई ॥ सासन दियो सुमंत तुरंता । सजी सैन्य गजवाजि अनंता॥ हल्ला.पो. नगर मह जाई । आवत अवध,आज रघुराई ॥ दुहुँ दिसि पंथ प्रजा कर जूहा । नारिवाल जुध वृद्ध समूहा ॥ खड़े राम दरसन के आसी। तिहि दिन भयो भुवन सुखरासी॥
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