कुटिला लक्ष्मीर्यत्र प्रभवति न सरस्वती वसति तत्र।
प्रायः श्वश्रुस्नुपयोर्न, दृश्यते - सौहृदं - लोके॥
चंचला लक्ष्मी और सरस्वती का सौहाद प्रायः असम्भव सा मान लिया गया है और वस्तुतःदेखा जाता है कि धनाढ्यों के वंश में विद्वानों का और सरस्वती के कृपापात्रों के यहाँ लक्ष्मी का अभाव सदा रहता है। परंतु इस महाकाव्य के प्रणेता बांधव-नरेश महाराज रघुराजसिंह देव बहादुर जी० सी० एस० आई० इस नियम के विरुद्ध ऐश्वर्यशाली नृपति और सुकवि हो गए हैं। यह अग्निवंशांतर्गत चालुक्य अर्थात्
सोलंखी वंश* के थे और इनके पूर्वज महाराज वीरध्वज के पुत्र महाराज व्याघ्र देव पहले पहल गुजरात के बघेला नामक ग्राम से इस प्रांत में आए थे, जिस कारण इनका वंश बघेला वंश भी कहलाता है। कुछ लोगों का कथन है कि इन लोगों के पूर्वज व्याघ्रदेव के नाम पर यह वंश बघेल वंश कहलाया। इन्हीं व्याघ्रदेव ने यहाँ आकर मुरफागढ़ और उसके आस पास की भूमि पर अधिकार कर लिया। महाराज रघुराजसिंह
* इस वंश वाले अपने को अग्निवंशीय बतलाते हैं। परन्तु इन्हीं के वंश के प्राचीन शिलालेखों और ताम्रपत्रों में इन्हें चंद्र या सोम वंशी
देखिए--सोलंखिओं का इतिहास, प्रथम भाग पृ० ३---१३ ।