- सङ्गीत विशारद *
१२७ "अकबर बादशाह के दरबार में उस समय चार महागुणी रहते थे-१-तानसेन, २-ब्रजचन्द ब्राह्मण (डागुर गांव के निवासी), ३-राजा समोखनसिंह वीणाकर ( खंडार नामक स्थान के निवासी ), ४-श्रीचन्द राजपूत ( नोहार के निवासी)। अकबर के समय में इन चारों के द्वारा चार वाणी प्रसिद्ध थीं। तानसेन गौड़ ब्राह्मण होने से उनकी वाणी गौड़ीय अथवा गोबरहरी पड़ गया। प्रसिद्ध वीणाकार समोखनसिंह की शादी तानसन की कन्या के साथ होने के कारण उनका नाम नौबादखां निश्चित हुआ। नौबादखां का निवास स्थान खण्डार था, इसलिये इनकी वाणी का नाम खण्डार वाणी हुआ। ब्रजचन्द के निवास स्थान के नामानुसार उनकी वाणी का नाम हुआ डागुर वाणी । और राजपूत श्रीचन्द नोहार के निवासी थे, इसलिये इनकी वाणी का नाम नोहार वाणी का नाम प्रसिद्ध हुआ।" चार वाणियों के प्रधान लक्षण- १-गोवरहरी वाणी:-इसका प्रधान लक्षण प्रसाद गुण है, यह शान्त रसोद्दीपक है और इसकी गति धीर है। २-खण्डार वाणी:-वैचित्र्य और ऐश्वर्य प्रकाश खण्डार वाणी की विशेषता है । यह तीव्र रसोद्दीपक है। गोवरहरी वाणी की अपेक्षा इसमें वेग और तरङ्ग अधिक होते हैं, किन्तु इसकी गति अति विलम्बित नहीं होती। ३-डागुर वाणी:-इसका प्रधान गुण है सरलता और लालित्य । इसकी गति सहज व सरल है, इसमें स्वरों का टेढ़ा और विचित्र काम दिखाया जाता है । ४-नोहार वाणी:-'नोहर' रीति से सिंह की गति का बोध होता है। एक स्वर से दो-तीन स्वरों का लंघन करके परवर्ती स्वर में पहुँचना इसका लक्षण है। नोहार वाणी विशेष रूप से रस की सृष्टि नहीं करती, अपितु यह आश्चर्य रसोदीपक है । हम जिसे केवल वाणी या शुद्ध वाणी कहते हैं, वह गोवरहरी और डागुर वाणी का ही नाम रूपान्तर है। शुद्ध वाणी ही सङ्गीत की आत्मा है और इसी से सङ्गीत की प्रतिष्ठा भी है । सङ्गीत के प्राणस्वरूप जो रस वस्तु है, उसका अविकल झरना शुद्ध वाणी में ही मिलेगा। इसके आनन्द का अनुभव वही कर सकता है, जिसने शुद्ध वाणी की रस धारा का रसास्वादन किया है, इसलिये सेनी लोग ( तानसेन वंश के गायक वादक ) सर्वदा शुद्ध वाणी के सङ्गीत पर विशेष जोर देते हैं। सङ्गीत की उक्त चार वाणियों में गोवरहरी (गौड़ीय वाणी ) को गुणीजनों ने राजा का पद दिया है। डागुर वाणी को मन्त्री का पद, खंडार को सेनापति का स्थान और नोहार को सेवक का स्थान दिया है। अपने-अपने स्थान पर प्रत्येक वाणी की एक विशिष्ट महत्ता है । गोवहरी वाणी का प्रत्येक स्वर अपने सुनिर्दिष्ट रूप में प्रगट होता है। स्पष्टता इस वाणी का प्रधान लक्षण है । डागुरवाणी में एक स्वर दूसरे स्वर के साथ जिस विचित्रता से मिलता है, उस कारण उसमें एक विचित्र और रहस्यमय भाव उत्पन्न हो जाता है। स्वर को स्पष्ट रूप में व्यक्त न करके श्रोता की कल्पना के अनुसार उसे प्रगट करना पड़ता है । लालित्य और गम्भीरता इन दोनों वाणियों में पर्याप्त रूप से