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- सङ्गीत विशारद *
छोटी-छोटी लकीरों पर श्रुतिया है, और बडी-बडी लकीरों वाले शुद्ध स्वर हैं। यहा पर एक बात बता देना आवश्यक प्रतीत होता है कि यद्यपि पुराने और नये ग्रन्थकार २२ श्रुतियों को १० स्वरों पर बाटने का उपरोक्त नियम स्वीकार करते हैं, किन्तु हमारे कुछ प्राचीन तथा मध्यकालीन ग्रन्थकार अपना प्रत्येक शुद्ध स्वर अतिम अति पर कायम करके इस प्रकार मानते हैं । १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ १९ २० २१ २२ सा रे ग अर्थात् चोथी श्रुति पर पडज, सातवीं पर रिषभ, नवीं श्रुति पर गान्धार, तेरहवीं पर मायम, सत्रहवीं पर पचम, वीसनी पर धैरत ओर बाईसवीं श्रुति पर निपाद । इसके विपरीत आधुनिक विद्वानों एर प्रन्थकारों ने, जैसा कि हम ऊपर बता चुके हैं । पहिली श्रुति पर पडज, पाचवीं पर रिपभ, आठवीं पर गान्धार, दसवीं पर मध्यम, चौदहवीं पर पचम, अठारहवीं पर धैवत ओर इक्कीसवीं श्रुति पर निषाद कायम किया है । आधुनिक प्रचलित सगीत पद्धति में यही नियम मान्य है। श्रुति और स्वर तुलना श्रुतय स्युः स्वराभिन्ना श्रावणत्वेन हेतुना । अहिकुण्डलवत्तत्र भेदोक्तिः शास्त्रसम्मता ॥ सर्वाश्च श्रुतयस्तत्तद्रागेपु स्वरतां गताः । रागाः हेतुत्व एतासा श्रुतिसजैव समता ।। -"सगीत पारिजात" अर्थात्-जो मुनी जा सकती है, श्रुति कहलाती है। श्रुति और स्वर में भेद इतना ही है कि जितना सर्प तथा उसकी कुण्डली में। यही भेद शास्त्र सम्मत है। और. वे सब श्रुतिया ही रागों मे स्वर का रूप धारण कर लेती हैं तथा इन झुतियों के कारण रूप राग ही हैं, अतएव श्रुति ऐसी सना ही सम्मत है। विश्वामासु ने लिया है-"कणस्पर्शाश्रुतिया स्थित्या सेवस्वरोच्यते"अर्थात् कण, स्पर्श, मींड, सूत से श्रुति तथा उस पर ठहरने से वही स्वर हो जाता है। मा नेश में प्रचलित है। .