११६ सचित्र महाभारत [पहला खण्ड निवात-कवच लोग कवच पहन कर और तरह तरह के हथियार लेकर निकलने लगे। मातलि सब अवस्था और स्थान देख भाल कर चौग्म ज़मीन पर इतनी जोर से ग्ध चलाने लगा कि उम समय हमें और कुछ न देख पड़ता था। अनन्तर दानव लोग तरह तरह के बेडौल बाजे बजाते और तेज़ बाणों की वर्षा करते हुए हमारी तरफ दौड़े। अन्त में हमारे रथ का रास्ता रोक और हमको घेर कर चारों ओर से लगातार बाण बरसाने और हमारे रथ पर त्रिशूल, गदा, पट्टिश आदि तरह तरह के हथियार चलाने लगे। मातलि ने रथ चलाने की आश्चर्य-जनक कुशलता दिखाते हुए इस तरह उसे चलाया कि हम तो बचे रहे, पर वे लोग उसके धक्के से चारों तरफ गिरने लगे। हमने भी विचित्र अब चला कर एक लाख दानवों को छिन्न भिन्न किया। तब दैत्य लोग माया के प्रभाव में छिप कर लड़ने लगे। हम भी शब्दभेदी बाणों के द्वारा न दिखाई देनवाले शत्रओं से युद्ध करने लगे। हमारे गाण्डीव से निकले हुए तेज बाणों के द्वारा बहुत से दानवों के सिर कट कट कर गिरने लगे। अन्त में निवात-कवच लोग आकाश में उड़ कर पत्थर बरसाने लगे। कोई मिट्टी में घुस कर घोड़ों के पैर और रथ के पहिये पकड़ने लगे। इस अपूर्व युद्ध- कौशल के कारण हमें कुछ चकित हुआ देख मातलि बोला :- हे अर्जुन ! डरना मत । रथ में रक्खा हुआ वत्र उठा कर चलाओ। तब हमने गाण्डीव रख दिया और इन्द्र का प्याग अत्र वा दृढ़ता से पकड़ कर ज्यों ही दानवों की तरफ़ चलाया त्यों ही उसमें से लोह के तरह तरह के दिव्य असर निकल कर ढेर के ढेर उन निवात-कवचों को मारने और एक दूसरं के ऊपर ज़मीन पर गिराने लगे। जब मातलि ने शत्रुओं का पूरे तौर से परास्त देखा तब हँस कर कहने लगा :- आज जैसा बलवीर्य मैंने तुममें देखा वैसा देवताओं में भी नहीं देखा था। इसके बाद मातलि ने हमें शीघ्र ही इन्द्रलोक में पहुँचा दिया। वहीं देवताओं ने प्रसन्न होकर हमें बार बार धन्यवाद दिया। देवराज इन्द्र ने कहा :--बेटा ! तुम्हें जो अस्त्रशिक्षा हमने दी है उसके बदले में तुम्हारी यह बढ़िया गुरुदक्षिणा पाकर हम बड़े प्रसन्न हुए। हम तुम्हारे लिए ऐसा यत्न करेंगे जिसमें तुम्हें अपने शत्रुओं से बिलकुल ही भय न रहे । इसके बाद दुर्योधन के पक्षवाले विकट योद्धाओं की वीरता का खयाल रख कर हम लगातार पाँच वर्ष इन्द्रलोक में रहे और सब अस्त्रों का चलाना सीख लिया। __अन्त में सुरराज इन्द्र ने आज्ञा दी :- हे अर्जुन ! इस समय तुम्हारे भाई बड़ी उत्कण्ठा में तुम्हारी राह देख रहे हैं। इसलिए तम अब मर्त्यलोक को लौट कर उन्हें सुखी करो :--- ___उनकी इस श्राज्ञा के अनुसार मर्त्यलोक को लौटते समय गस्ते में हमने इम गन्धमादन पर्वत पर आप सब लोगों को देखा। युधिष्ठिर ने कहा :-भाई ! बड़े भाग्य थे जो तुमने ये सब दिव्य अत्र प्राप्त किये और अद्भुत अद्भुत काम करके इन्द्र को प्रसन्न किया। अब इसमें कोई सन्देह नहीं कि कौरवों के साथ युद्ध में हमी जीतेंगे। इसके बाद पाण्डव लोग अपने भाई अर्जुन से मिल कर चुपचाप और चार वर्ष तक वहाँ रहे । छः वर्ष पहले ही बीत चुके थे । इसलिए वनवास के अब सिर्फ दो वर्ष बाकी रहे। एक दिन पाण्डवों ने मिल कर युधिष्ठिर से निवेदन किया:- हे राजन् ! हम स्वर्ग के समान इस परम रमणीय स्थान में बड़े आनन्द से बहुत दिनों तक
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