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पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/१४६

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१२४ सचित्र महाभारत [पहला खण्ड क्या धर्म, क्या धन, क्या सुख, क्या प्रभुता अब हमें किसी से प्रयोजन नहीं है। हमने अन्न- जल ग्रहण न करने ही का निश्चय किया है । इस विषय में हमसे अब कोई कुछ न कहे । तब सब लोग बोले :- महाराज ! तो हम भी अब नगर को न लौटेंगे। जो तुम्हारा हाल होगा वही हमारा भी होगा। परन्तु दुर्योधन अपनी बात पर दृढ़ रहे । उन्होंने किसी की भी विनती न सुनी । स्वर्ग पाने की इच्छा से उन्होंने जल छूकर कोरा वस्त्र पहना और कुशासन पर बैठ गये। इस तरह बिना कुछ खाये पिये दुर्योधन ने वह रात प्राय: बेहोशी की दशा में बिताई । रात को स्वप्न में उन्होंने देखा, मानों दानवों का एक झुंड उनको पाताल में ले जाकर कहने लगा :- महाराज ! तुम पाण्डवों से क्यों डरते हो ? हम सब तुम्हारी सहायता करेंगे। भीष्म, द्रोण श्रादि के शरीर में हम लोगों के घुसने पर वे विकट युद्ध करके पाण्डवों का संहार करेंगे। अर्जुन से हारने की शङ्का भी तुम्हारी व्यर्थ है। नरकासुर की आत्मा जब कर्ण के शरीर में प्रवेश करेगी तब खुद इन्द्र भी अर्जुन की रक्षा न कर सकेंगे। इस पर, स्वप्न में, दुर्योधन ने सोचा कि हम निश्चय ही पाण्डवों को हरा देंगे। उनकी आशा बे-तरह बलवती हो उठी। उसके वेग में उन्हें ऐसा मालूम होने लगा मानों भीष्म, द्रोण और कर्ण के शरीर में दानवां ने सचमुच ही प्रवेश किया है और वे निर्दयता से पाण्डवों का नाश कर रहे हैं। इस खयाल ने उनके शोक को बहुत कुछ कम कर दिया। किन्तु यह बात उन्होंने किसी से नहीं कही। दूसरे दिन सबेरे कर्ण आदि सब लोग फिर दुर्योधन को तरह तरह से धीरज देकर समझाने और दुःशासन आदि भाई घिघिया कर बार बार मनाने लगे। तब दुर्योधन रात के स्वप्न की कल्पना के प्रभाव से पाण्डवों को मरा हुआ समझ कर उठ बैठे और घर लौट चलने पर राजी हुए। ____कर्ण और शकुनि आदि के साथ राजसी ठाट-बाट से दुर्योधन हस्तिनापुर पहुंचे। वहाँ पहुँचते ही दुर्योधन का तिरस्कार करके भीष्म कहने लगे :- बेटा ! द्वैतवन जाने के लिए.हमने तुम्हें मना किया था। पर तुमने हमारी बात न मानी। देखो, पाण्डव कैसे धर्मज्ञ हैं। उन्होंने गन्धवों के हाथ से बचा कर तुम्हारी प्राण रक्षा की। इससे क्या तुम्हें जरा भी लज्जा न आई ? अपने मुँह अपनी प्रशंसा करनेवाले कर्ण और पाण्डवों के पराक्रम का भेद समझ लिया ? जिस कर्ण के बल पर तुम पाण्डवों के साथ सदा द्वेप किया करते हो, वह लड़ाई के मैदान में तुम्हें छोड़ कर बिना किसी सोच विचार के भाग गया। किन्तु, राजा दुर्योधन ने भीष्म की बात की कुछ भी परवा न करके उसे हँसी में उड़ा दिया और शकुनि के साथ वहाँ से चल दिया। दुर्योधन की इस उजडुता से कुरुवंश में श्रेष्ठ भीष्म बड़े लज्जित होकर अपने घर चले आये। इसके अनन्तर भीष्म की बात से क्रद्ध होकर कर्ण कहने लगे :- हे दुर्योधन ! भीष्म सदा पाण्डवों की प्रशंसा और हम लोगों की निन्दा किया करते हैं। तुमसे वे द्वेष रखते हैं, इस कारण हमें भी वे सदा भला बुरा कहा करते हैं। यह अपमान अब हमसे नहीं सहा जाता । यदि तुम्हारी आज्ञा हो तो सारी पृथ्वी जीत कर जो काम चार पाण्डवों ने मिल कर किया था वही सिर्फ चतुरङ्गिनी सेना की सहायता से हम अकेले ही कर दिखावें । कुरुकुल में यह भीष्म महा नीच पैदा हुआ है । द्वेष के कारण ही वह हमें तुच्छ समझता है । उसे हम अपनी वीरता दिखाना चाहते हैं। दुर्योधन इस बात से बड़े प्रसन्न होकर बोले :- ____ हे कर्ण ! हम जानते हैं कि तुम हमारी भलाई करने की चेष्टा में सदा ही लगे रहते हो; इससे हम अपने को धन्य और कृतार्थ समझते हैं । तुम खुशी से दिग्विजय के लिए जाने की तैयारी करो।