पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/१६५

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पहला खण्ड ] अज्ञात वास १४१ कुण्डल, रेशमी वस्त्र आदि कितनी ही चीजें मँगा रक्खी हैं । यहाँ सुन्दर सेज भी बिछी हुई है। आओ, दोनों जने बैठ कर मद्यपान करें। द्रौपदी ने इस बात का कोई उत्तर न दिया । वह काँपती हुई कहने लगी :रानी बड़ी प्यासी हैं। इसलिए उन्होंने मुझे शराब लाने के लिए भेजा है । मैं वही लेने आई हूँ। तब कीचक ने मुसकरा कर कहा :रानी के लिए कोई और शराब ले जायगा । तुम हमारे पास बैठी। यह कह कर उसने द्रौपदी का दाहिना हाथ पकड़ा। तब द्रौपदी जोर से चिल्ला कर बड़े ही आतस्वर से कहने लगी-अरे दुरात्मा ! यदि मैंने मन से भी कभी पति का अनादर न किया हो तो उस पुण्य के प्रभाव से मेरी रक्षा हो। पर कीचक ने तब भी न माना । उसने द्रौपदी की चादर पकड़ ली। तब द्रौपदी ने बड़े क्रोध से कपड़ा खींच लिया। इसस कीचक ज़मीन पर गिर पड़ा। यह सुयोग पाकर वह राजसभा की और जल्दी जल्दी भागने लगी। इस तरह गिग्न और अपमानित होने से कीचक को बड़ा क्रोध आया । वह क्रोध और घमण्ड में चूर होकर द्रौपदी के पीछे दौड़ा। ज्योंही द्रौपदी राजसभा में पहुँची त्योंही उसके निकट जाकर उसने बड़े क्रोध से उसके बाल पकड़ कर खींच और सब गजों के सामने उसके लात मारी। यह करके वह वहाँ से चल दिया। उस समय भीमसन भी सभा में बैठ थे । द्रौपदी का अपमान होते देख उन पर वन सा गिरा। एकदम से आँखें लाल लाल करके वे दाँत कटकटाने लगे और कीचक को मारने के लिए कूद कर दौड़न को तैयार हुए । यह देख कर युधिष्ठिर हर कि ऐसा न हो जा हम लोग पहचान लिये जायें। इसलिए उन्होंन भीमसेन को हाशियार करने के लिए इशारे से कहा : हे सूद ! क्या तुम लकड़ी के लिए पेड़ को देख रहे हो ? यदि तुम्हें लकड़ी दरकार हो तो बाहर के पेड़ से ले लेना। उस समय अपमानिता द्रौपदी ने अपने पतियों और विराटगज की ओर इस तरह देखा, मानों उन्हें जला कर वह भस्म कर देगी। वह कहने लगी : हाय । आज मैंने जाना कि मत्स्यगज बड़े अधर्मी हैं। क्योंकि निरपराध स्त्री को मार खाते देख कर भी उन्होंने कुछ न कहा । जब राजा ही ने विचार न किया तब और किससे मैं न्याय के लिए प्रार्थना करूं? मत्स्यराज ने कहा:-हम तुम्हारे कलह का पूरा पूरा हाल ही नहीं जानते । फिर बिना जाने कैसे विचार कर सकते हैं ? सभासदों में से कोई ता कीचक की निन्दा और कोई द्रौपदी की प्रशंसा करने लगा। पत्नी के अपमान को देख कर युधिष्ठिर के माथे से पसीना बहने लगा । किन्तु बड़े कष्ट से उन्होंने अपने क्रोध को रोका और तिरस्कार के बहाने द्रौपदी को हितोपदेश करने लगे। वे बोले : हे सैरिन्ध्री । यहाँ पर अधिक देर तक तुम्हारे रहने की जरूरत नहीं है। तुम रानी के महल में चली जाव । और स्त्रियों की तरह तुम क्यों राजसभा में रो रही हो ? तुम्हारी रक्षा करनेवाले गन्धर्व लोग मौका पाते ही तुम्हारे शत्रुओं का ज़रूर नाश करेंगे। यह बात सुन कर क्रोध से लाल लाल आँखें किये हुए द्रौपदी सुदेष्णा के घर पहुंची। उसे ब-तरह कुपित देख कर रानी ने पूछा : हे सुन्दरी ! तुम क्यों रोती हो ? किसने तुम्हें कष्ट पहुँचाया है ?