दूसरा खरड ] शान्ति की चेष्टा १७५ की हमने इच्छा प्रकट की। किन्तु, सारे राज्य को अपने ही अधिकार में रखने के लोभी कौरवों ने इस शर्त को भी न माना। इससे अधिक दुःख की बात और क्या हो सकती है ? हे केशव ! तुमने अपनी आँख से देखा है कि लड़ाई झगड़ा बचाने के भय और धर्म के अनुरोध से आज तक हम लोगों ने कितना क्लेश उठाया है। अब हम न्याय से अपना राज्य पाने के अधिकारी हैं। फिर भला, कहिए, अपनी ज्ञाति को और अधिक कष्ट उठाते हम किस प्रकार देख सकेंगे ? इससे यद्यपि लड़ाई में हार जीत होना, दोनों बातें, हमारे लिए प्रायः एक सी हैं, क्योंकि चाहे हम हारें चाहे कौरव लोग, दोनों तरह से हमारे प्यारे बन्धुबान्धवों का नाश अवश्य ही होगा, तथापि हमने तो अब यह निश्चय किया है कि यदि कठोरता दिखलाने की जरूरत होगी तो वही करेंगे और यदि राज्य पाने के लिए प्राण तक देने होंगे तो उन्हें भी दे देगे। हे चतुर-शिरोमणि ! यह मामला बड़ा ही गम्भीर है। इससे तुम्हें छोड़ कर और किससे उचित सलाह की हम आशा करें । आप दोनों पक्षों के शुभचिन्तक और प्यारे हैं। इस विषय में सब बातों का मर्म जाननेवाला आपके सिवा और कौन है ? युधिष्ठिर के मुँह से यह सुन कर कृष्ण ने कुछ देर तक विचार किया। फिर वे बोले :- हे धर्मराज ! युद्ध शुरू होने के पहले हम चाहते हैं कि हम खुद एक बार हस्तिनापुर जायें और दोनों पक्षों के हित के लिए आखिरी चेष्टा कर देखें । हम वहाँ आपके स्वार्थ का पूरा पूरा खयाल रक्खेंगे। यदि आपको किसी तरह की हानि पहुँचाये बिना हम शान्ति स्थापन कर सकें तो कुरु कुल का मृत्यु के मुँह से बचा कर हम अपने को महापुण्यवान् समझेंगे। युधिष्ठिर ने कहा-हे कृष्ण ! हमारा मत तो यह है कि आपको कौरवों के पास न जाना चाहिए। राज्य के मोह से उनकी बुद्वि मारी गई है। इससे वे कभी आपका उचित आदर सत्कार न करेंगे। आप जो कुछ उपदेश देंगे वह जरूर ही युक्तिपूर्ण और उचित होगा। परन्तु, हमें विश्वास है, दुर्योधन कभी आपकी बात न मानेंगे । रहे दूसरे राजपुरुष, सो वे भी दुर्योधन की हाँ में हाँ मिलावेंगे; क्योंकि वे सब उसी के वश में हैं। हे माधव ! उन अधर्मियों के घर जाने से आप पर यदि कोई आपत्ति आवे तो, इस लोक का राज-पाट तो दूर रहे, देवताओं के समान ऐश्वर्य मिलने पर भी हमारे मन का दुःख दूर न होगा। कृष्ण बोले- हे धर्मराज ! हम दुर्योधन की पाप-बुद्धि का बहुत अच्छा ज्ञान रखते हैं । हमसे कोई बात छिपी नहीं । तथापि हमारा हस्तिनापुर जाना किसी तरह व्यर्थ न जायगा। या तो हम अपने काम में सफल होकर सबका उद्वार करेंगे; या, यदि, ऐसा न होगा, तो अन्त तक शान्ति की चेष्टा करने के कारण लोक में कोई हमें निन्दनीय तो न समझेगा। हमारे लिए आप कुछ भी न डरें। यदि मूर्खता के कारण कौरव लोग हम पर अत्याचार करने की चेष्टा करेंगे तो हम अपनी रक्षा करने की काफी शक्ति रखते हैं। युधिष्ठर ने कहा-हे कृष्ण ! तुम यदि यही अच्छा समझते हो तो हम मना नहीं करते । अाशा है, तुम सफल-मनोरथ होकर बिना विन-बाधा के लौट आओगे। पर, यदि, ऐसा न होगा तो हम युद्ध के लिए जरूर ही तैयारी करेंगे। युधिष्ठिर की बात समाप्त होने पर भीमसेन कहने लगे :- हे मधुसूदन ! आप तो दुर्योधन के स्वभाव को अच्छी तरह जानते हैं। वह महाक्रोधी है; पहले दर्जे का शठ है; दीर्घदर्शीपन तो उसमें छू तक नहीं गया; आगे-पीछे की सब बाते सोच कर काम करना वह जानता ही नहीं। इस समम वह अपने ऐश्वर्या के मद में मत्त हो रहा है। उसके साथी उसे हमारे साथ शत्रता करने के लिए उकसा रहे हैं। वह अपने प्राणों से चाहे भले ही हाथ धो बैठे, पर नम्र होने का नहीं। इस समय दोनों तरफ़ युद्ध का जैसा सामान इकट्ठा हुआ है, उससे तो यही मालूम होता है कि युद्ध होने से यह जगत्-प्रसिद्ध भरतकुल जड़ से नाश हुए बिना न रहेगा। एक एक काल पुरुष
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