दूसरा खण्ड ] अन्त का युद्ध २६३ तुमने हम लोगों को ऊपर उठा कर बड़े जोर से जमीन पर पटक दिया । तुम्हारे गाण्डीव को धिक्कार है ! तुम्हारे बाहुबल और कभी न खाली होनेवाले तुम्हारे तरकस को धिक्कार है ! बन्दर के चिह्नवाली ध्वजा और अग्नि के दिये हुए द्विव्य रथ को भी धिक्कार है। युद्ध के मैदान में हमारी सेना के नाकों दम करनेवाले सूत-पुत्र का यदि तुम निवारण नहीं कर सकते--यदि उन्हें तुम उचित दण्ड नहीं दे सकते तो इस गाण्डीव धन्वा को क्यों तमने हाथ में रख छोड़ा है क्यों नहीं उसे अपने से अधिक योग्य किसी राजा को दे देते ? ऐसा करने से लोग हमें स्त्री-पुत्र-हीन और राज्यभ्रष्ट तो नहीं देखेंगे। युधिष्ठिर की बात समाप्त न होने पाई थी कि अर्जुन ने तलवार खींच ली। तब कृष्ण बहुत घबरा कर कहने लगे :- हे अर्जुन ! इस समय यहाँ पर तुम्हारा कोई शत्रु नहीं, फिर तुम्हारे इस तलवार निकालने से क्या मतलब ? धर्मराज को तुमने कुशल-पूर्वक पाया है; अतएव तुम्हें आनन्द मनाना चाहिए, तलवार निकालना नहीं ! तुम इस समय पागल की तरह क्यों काम कर रहे हो ? हम तो यहाँ किसी को भी नहीं देखते जिसे मारने की तुम्हे जरूरत हो । फिर तुम किस पर चोट करना चाहते हो ? महा तेजस्त्री अर्जुन ने युधिष्ठिर की तरफ कड़ी नज़र से देखा और चपेट में पड़े हुए साँप की तरह जोर से साँस लेकर कृष्ण से कहा :- हे जनार्दन ! जो हमारा अपमान कर वही हमार। शत्रु है । जो हमें दूसरे के हाथ में गाण्डीव लेने को कहे वही हमारे वध करने योग्य है। इसी से हमने तलवार निकाली है। इस विषय में तुम्हें और जो कुछ कहना हो कह डालो। तब कृष्ण ने कहा :-हाय हाय ! धिक्कार है तुम्हारी इस समझ को! तुच्छ और नादान आदमियों की तरह क्रोध के वशीभूत होकर तुम्हें आज अपने जेठे भाई को मारने के लिए तैयार देख हम बहुत ही विस्मित हुए हैं । सूत-पुत्र कर्ण की निरन्तर बाण-वर्षा से घायल होने के कारण धर्मराज अत्यन्त विकल और दुःखित हैं । इसी से क्रोध में आकर तुम्हें उन्होंने ऐसे अनुचित वचन कहे हैं। इससे उनका केवल इतना ही मतलब है कि कुपित होकर तुम शीघ्र ही कर्ण का संहार करो। इस पर अर्जुन ने तलवार को मियान के भीतर कर लिया और युधिष्ठिर से इस प्रकार कठोर वचन कहना प्रारम्भ किया :- राजन् ! तुम युद्ध-भूमि से एक कोस दूर अपने डेरों में हो । युद्ध का हाल तुम्हें कुछ भी नहीं मालूम । फिर क्या समझ कर तुमने हमारा धिक्कार किया ? शत्रुनाशक भीमसेन शत्रों के साथ युद्ध कर रहे हैं । वे चाहे तो हमारी निन्दा कर सकते हैं-कठोर वचनों से हमारी ताड़ना कर सकते हैं। किन्तु तुम्हारी रक्षा तो हमेशा हमी लोग करते हैं। तुम्हारे इष्ट-मित्र ही सदा तुम्हें अनिष्ट से बचाते रहते हैं। इससे हमारी निन्दा करना तुम्हें शोभा नहीं देता। स्त्री, पुत्र, शरीर और प्राणों तक की परवा न करके हम तुम्हारी भलाई के लिए यन कर रहे हैं। तिस पर भी तुम वाक्य बाणों से हमें पीड़ा पहुँचाने से न चूके । जुआ खेल कर तुम्हीं ने यह सारी विपत्ति बुलाई है और अब इच्छा यह रखते हो कि शत्रुओं का पराजय करें हम ! खैर, जो कुछ हुआ सो हुा । अब फिर कठोर वचन कह कर कभी हमें व्यथा न पहुँचाना। यह सुन कर सन्ताप से तपे हुए धर्मराज शय्या से उठ बैठे और बड़े दुःख से कहने हे अर्जुन ! हमने बहुत बुरा काम किया। इसी से तुम्हें इतना दुःख हुआ। हम बड़े ही मूर्ख, लगे :--
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